Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
दीनामचेतनत्वात्तद्वृत्तेः सुतरामचैतन्यमिति कथं प्रमाणत्वम् ? । चेतनसंसर्गात्तच्चैतन्याभ्युपगमे वरं चित एव प्रामाण्यमभ्युपगन्तुं युक्तम् । न चाविल्पकत्वे प्रामाण्यमस्तीति यत्किञ्चिदेतत् ।
११५ - " प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम् " [ सां० का० ५ ] इति प्रत्यक्षलक्षणमितीश्वरकृष्णः । तदप्यनुमानेन व्यभिचारित्वादलक्षणम् । अथ 'प्रतिः' आभिमुख्ये वर्तते तेनाभिमुख्येन विषयाध्यवसायः प्रत्यक्षमित्युच्यते; तदप्यनुमानेन तुल्यम् घटोऽयमितिवदयं पर्वतोऽग्निमानित्याभिमुख्येन प्रतीतेः । अथ अनुमानादिविलक्षणो अभिमुखोऽध्यवसायः प्रत्यक्षम् ; तर्हि प्रत्यक्षलक्षणमकरणीयमेव शब्दानुमानलक्षणविलक्षणतयैव तत्सिद्धेः । ११६ - ततश्च परकीयलक्षणानां दुष्टत्वादिदमेव 'विशदः प्रत्यक्षम्' इति प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यम् ॥ २९॥
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११७-प्रमाणविषयफलप्रमातृरूपेषु चतुर्षु विधिषु तत्त्वं परिसमाप्यत इति विषयादिलक्षणमन्तरेण प्रमाणलक्षणमसम्पूर्णमिति विषयं लक्षयति
प्रमाणस्य विषयो द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु ॥ ३० ॥
किन्तु श्रोत्र आदि जब अचेतन हैं उनका व्यापार भी अचेतन ही होगा, अतएव वह प्रमाण कैसे हो सकता है ? अगर चेतन के संसर्ग से उसे चेतन मानते हो तो उससे यही अच्छा हो कि चित् ज्ञान को ही प्रमाण स्वीकार करो। यह पहले कहा जा चुका है कि निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । अतएव यह मान्यता यों ही है ।
११५ - ईश्वरकृष्ण नामक सांख्याचार्य कहते हैं- 'प्रतिविषय का अध्यवसाय प्रत्यक्ष कहलाता है' यह लक्षण अनुमान से व्यभिचरित है अर्थात् अनुमान में भी पाया जाता है ( क्योंकि अनुमान मी प्रतिनियत विषय को जानता है। शंका- 'प्रति' शब्द अभिमुखता के अर्थ में है। अतएव अभिमुख रूप से समक्ष रूप से पदार्थ का जो ज्ञान होता है वही प्रत्यक्ष कहलाता है । समाधान तब भी लक्षण अनुमान में जाता है। जैसे 'यह घट है' ऐसा अभिमुख रूप से प्रत्यक्ष होता है, उसी प्रकार यह पर्वत वह निमान है' यह अनुमान ज्ञान भी अभिमुख रूप से होता है शंका अनुमान आदि से विलक्षण अभिमुख अध्यवसाय प्रत्यक्ष है. ऐसा कहने से अनुमान में लक्षण नहीं जाएगा । फिर कोई दोष नहीं रहेगा। समाधान - ऐसा है तो प्रत्यक्ष का लक्षण कहने की आवश्यकता ही क्या है ? अनुमान और आगम प्रमाण से विलक्षण होने से ही प्रत्यक्षके लक्षण की सिद्धि हो जाएगी । ११६ - इस प्रकार दूसरों के लक्षण दूषित होने के कारण विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है' यही लक्षण निर्दोष ठहरता है ॥२९॥
११७ - प्रमाण, प्रमाण का विषय, फल और प्रमाण, इन चार भेदों में तत्त्व को परिसमाप्ति होती है। अतएव जब तक प्रमाण का विषय आदि न बतलाया जाए तब तक प्रमाण का लक्षण अधूरा है । अतएव पहले विषय का निरूपण करते हैं( अर्थ ) द्रव्य - पर्यायात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है ॥ ३० ॥