Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
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नः समीहितम् । न च जैमिनिरन्यो वा सकलदेशादिसाक्षात्कारी सम्भवति सत्त्वपुरुषत्वादेः रथ्यापुरुषवत् । अथ प्रज्ञायाः सातिशयत्वात्तत्प्रकर्षोऽप्यनुमीयते ; तहि तत एव सकलार्थदर्शी किं नानुमीयते ? | स्वपक्षे चानुपलम्भमप्रमाणयन् सर्वज्ञाभवे कुतः प्रमाणयेदविशेषात् ? ।
६१-न चानुमानं तद्बाधकं सम्भवति; धर्मिग्रहणमन्तरेणानुमानाप्रवृत्तेः, धर्मग्रहणे वा तद्ग्राहकप्रमाणबाधितत्वादनुत्थानमेवानुमानस्य । अथ विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति वक्तृत्वात् पुरुषत्वाद्वा रथ्यापुरुषवदित्यनुमानं तद्बाधकं ब्रूषे; तदसत् ; यतो यदि प्रमाणपरिदृष्टार्थवक्तृत्वं हेतुः; तदा विरुद्धः, तादृशस्य वक्तृत्वस्य सर्वज्ञ एव भावात् । अथासद्भूतार्थवक्तृत्वम् ; तदा सिद्धसाध्यता, प्रमाणविरुद्धार्थवादिनाम सर्वज्ञत्वेनेष्टत्वात् । वक्तृत्वमात्रं तु सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकम् ज्ञानप्रकर्षे वक्तृत्वापकर्षादर्शनात्, प्रत्युत ज्ञानातिशयवतो वक्तृत्वातिशयस्यैवोपजाता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में आप स्वयं सर्वज्ञ हो जाएँगे । किन्तु जैमिनि या अन्य कोई पुरुष सम्पूर्ण देशादि को साक्षात् करने वाला हो नहीं सकता, क्योंकि वह सत् अथवा पुरुष है । जो सत् या पुरुष होता है वह सकल देश आदि का साक्षात्कर्त्ता नहीं हो सकता, जैसे कि राहगीर । ( यह आपका ही मत है ।)
शंका- प्रज्ञा में तरतमता देखी जाती है. अतएव किसी पुरुष में उसके प्रकर्ष का अनु. मान भी किया जा सकता है। समाधान-यदि प्रज्ञा के प्रकर्ष का अनुमान करते हो तो सर्वदर्शो का ही अनुमान क्यों नहीं कर लेते ! अपने पक्ष में अनुपलम्भ को प्रमाण नहीं स्वीकार करते तो सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करने में उसे प्रमाण कैसे मान सकते हो ?
६१ - अनुमान प्रमाण भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं हो सकता । धर्मी ( पक्ष प्रस्तुत में सर्वज्ञ) को जाने विना अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती । अगर धर्मी सर्वज्ञ-का जान लेना स्वीकार करो तो जिस प्रमाण से धर्मो का ग्रहण किया जाएगा वही प्रमाण सर्वज्ञनिषेधक अनुमान का बाधक हो जाएगा । ऐसी स्थिति अनुमानबाधित पक्ष होने से अनुमान हो ही नहीं सकता ।
शंका-विवादग्रस्त पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है या क्योंकि वह पुरुष है । जो वक्ता अथवा पुरुष होता है । वह सर्वज्ञ नहीं होता, जैसे कोई राहगीर ।' यह अनुमान सर्वज्ञ का बाधक है । समाधान नहीं है । यहाँ वक्तृत्व का अभिप्राय क्या है ? यदि प्रमाणदृष्ट अर्थों के वक्तृत्व से अभिप्राय हो तो हेतु विरुद्ध है, अर्थात् यह उलटा सर्वज्ञता को सिद्ध करता है, क्योंकि ऐसा वक्तृत्व सर्वज्ञ में ही हो सकता है । अगर असद्द्भूत अर्थों का वक्तृत्व कहते हो तो वह सिद्ध को ही सिद्ध करता है । प्रमाणविरुद्ध वक्ता को हम भी सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते । यदि वक्तृत्व मात्र को हेतु कहा जाय तो संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक होने से व्यभिचारी है, अर्थात् सामान्य वक्तृत्व सर्वज्ञ में भी पाया जा सकता है, क्योंकि ज्ञान की वृद्धि होने पर वक्तृत्व की हानि नहीं देखी जाती । इसके विपरीत ज्ञान का उत्कर्ष होने पर वक्तृत्व का उत्कर्ष ही देखा जाता है ।