Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा लब्धः । एतेन पुरुषत्वमपि निरस्तम् । पुरुषत्वं हि यदि रागाद्यदूषितं तदा विरुद्धम्ज्ञानवैराग्यादिगुणयुक्तपुरुषत्वस्य सर्वज्ञतामन्तरेणानुपपत्तेः। रागादिदूषिते तु पुरुषत्वे सिद्धसाध्यता । पुरुषत्वसामान्यं तु सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकमित्यबाधकम् ।
६२--नाप्यागमस्तद्बाधकः तस्यापौरुषेयस्यासम्भवात् सम्भवे वा तद्बाधकस्य तस्यादर्शनात् । सर्वज्ञोपज्ञश्चागमः कथं तद्बाधकः ?, इत्यलमतिप्रसङ्गेनेति ॥१७॥ ६३-न केवलं केवलमेव मुख्यं प्रत्यक्षमपि त्वन्यदपोत्याह--
तत्तारतम्येऽवधिमनःपर्यायौ च ॥१८॥ ६४--सर्वथावरणविलये केवलम्, तस्यावरणविलयस्य 'तारतम्य' आवरणक्षयोपशमविशेषे तन्निमित्तकः 'अवधिः' अवधिज्ञानं 'मनःपर्यायः' मनःपर्यायज्ञानं च मुख्यमिन्द्रियानपेक्षं प्रत्यक्षम् । तत्रावधीयत इति 'अवधिः' मर्यादा, सा च "रूपिष्ववधेः"(तत्त्वा० १.२८] इति वचनात् रूपवद्रव्यविषया अवध्युपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः।
उपर्युक्त कथन से पुरुषत्व हेतु भी खंडित हो जाता है। यहाँ भी तीन विकल्प हो सकते है-(१) रागादि से अदूषित पुरुषत्व (२) रागादि से दूषित पुरुषत्व और (३) पुरुषत्व सामान्य । पहला पक्ष लिया जाय तो हेतु विरुद्ध है, क्यों क ज्ञान वैराग्य आदि से युक्त पुरुषत्व सर्वज्ञता के विना संभव नहीं है। दूसरे पक्ष में सिद्धसाध्यता है, क्योंकि रागादि से दूषित पुरुष को हम सर्वज्ञ मानते ही नहीं। तीसरे पक्ष में पुरुषत्वसामान्य संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक है। क्योंकि सर्वज्ञत्व के साथ पुरुषत्व का कोई विरोध नहीं है।
इस प्रकार अनुमान प्रमाण भी सर्वज्ञता का बाधक सिद्ध नहीं होता।
६२-आगम प्रमाण भी बाधक नहीं है । अपौरुषेय आगम तो कोई हो ही नहीं सकता और मान भी लिया जाय तो वह बाधक दीखता नहीं । सर्वज्ञकृत आगम सर्वज्ञत्व का बाधक हो ही कैसे सकता है ? (असर्वज्ञकृत आगम प्रामाणिक नहीं माना जा सकता) । अब यह चर्चा अधिक नहीं करते ॥१७॥
६३-सिर्फ केवलज्ञान ही मुख्य प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु अन्य ज्ञान भी मुख्य प्रत्यक्ष हैं, यह बतलाते हैं
अर्थ--आवरणक्षय का तारतम्य होने पर अर्वाध और मनःपर्याय ज्ञान होते है। वे भी मुख्य प्रत्यक्ष हैं ॥१८॥
६४-ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर केवलज्ञान होता है। किन्तु जब आवरणक्षय का तारतम्य होता है अर्थात् विशिष्ट क्षयोपक्षम होता है तब इन्द्रियों की अपेक्षा न रखने वाला अधिज्ञान और मनःपर्याय उत्पन्न होता है। यह दोनों ज्ञान भी मुख्य प्रत्यक्ष हैं । अर्वाध अर्थात् मर्यादा से युक्त ज्ञान अर्वाधज्ञान कहलाता है। मर्यादा यह है कि यह ज्ञान रूपी द्रव्यों को ही "कानता है । तत्वार्थसूत्र में भी यही कहा है-'रूपी द्रव्यों में ही अधिज्ञान के विषय का नियम है।'