Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
"वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् । चर्मोपमश्चेत् सोऽनित्य. खतुल्यश्चेदसत्फलः ॥”
इति चेत्; न; अस्य दूषणस्य कूटस्थनित्यतापक्ष एव सम्भवात्, परिणामिनित्यश्चा-त्मेति तस्य पूर्वापरपर्यायोत्पादविनाशसहितानुवृत्तिरूपत्वात्, एकान्तनित्यक्षणिक पक्षयोः सर्वथार्थक्रियाविरहात्, यदाह-
"अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः ।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥" [ लघी० २.१ ]
२७
इति ॥ १५ ॥
५४ -- ननु प्रमाणाधीना प्रमेयव्यवस्था । न च मुख्यप्रत्यक्षस्य तद्वतो वा सिद्धौं किञ्चित् प्रमाणमस्ति । प्रत्यक्षं हि रूपादिविषय विनियमितव्यापारं नातीन्द्रियेऽर्थे प्रवर्ततुमुत्सहते । नाप्यनुमानम्, प्रत्यक्षद्दष्टलिंगलिंगि सम्बन्धबलो ( प ) जननधर्मकत्वात्तस्य । आगमस्तु यद्यतीन्द्रियज्ञानपूर्वकस्तत्साधकः ; तदेतरेतराश्रयः-
“नर्ते तदागमात्सिध्येन्न च तेनागमो विना ।" [ श्लोकवा० सू० २. श्लो० १४२] इति । अपौरुषेयस्तु तत्साधको नास्त्येव । योऽपि -
चाहे वर्षा हो, चाहे धूप गिरे, (नित्य) आकाश का क्या बिगड़ता है ? उनका प्रभाव चमडे पर होता है । यदि आत्मा चमड़े के समान है तो वह अनित्य हो जाएगा और यदि आकाश के समान (नित्य) है तो उस पर न आवरणों का प्रभाव पडेगा, न रत्नत्रय आदि का ।
समाधान - यह दोष कूटस्थ नित्यता मानने पर ही हो सकता है, किन्तु आत्मा तो परिणामी नित्य है । आत्मा की पूर्व - पूर्व पर्याय का उत्पाद होता रहता है, फिर भी वह द्रव्य से नित्य है । एकान्त नित्य और एकान्त क्षणिक पक्ष में किसी भी प्रकार अर्थक्रिया संगत नहीं हो सकती । कहा भी है
'अर्थत्रिया वस्तु का लक्षण मानी गई है । अर्थात् यह सर्वमान्य है कि जिसमें अर्थक्रिया पाई जाय वही वस्तु कहलाती है । यह अर्थक्रिया एकान्त क्षणिक पक्ष में न क्रम से घटित होती है, न युगपत् । ' ।। १५ ।।
५४ - शंका - प्रमेय की व्यवस्था प्रमाण के अधीन है। मुख्य प्रत्यक्ष ( केवलज्ञान ) या मुख्य ( केवलज्ञानी) की सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्यक्ष का व्यापार रूप आदि विषयों में ही नियत है । वह अतीन्द्रिय पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं कर सकता । रहा अनुमान, सो वह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले लिंग ( साधन) और साध्य के संबंध में (अविनाभाव ) की सहायता से उत्पन्न होता है । ( अतः इन दोनों प्रमाणों से मुख्य प्रत्यक्ष का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता) यदि अतीन्द्रियज्ञानपूर्वक (सर्वज्ञप्रणीत) आगम को मुख्य प्रत्यक्ष का साधक माना जाय तो इतरेतराश्रय दोष का प्रसंग है क्योंकि, आगम के बिना मुख्य प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं होता । और प्रत्यक्षकी सिद्धि हुए विना सर्वज्ञप्रणीत आगम सर्वज्ञ का साधक हो नहीं सकता ।