Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
- २१. ननु अस्तूक्तलक्षणं प्रमाणम्: तत्प्रामाण्यं तु स्वतः, परतो वा निश्चीयेत? न तावत् स्वतः; तद्धि श्व (स्व) संविदितत्वात् ज्ञानमित्येव गृहणीयात्, न पुनः सम्यक्त्वलक्षणं प्रामाण्यम्, ज्ञानत्वमात्रं तु प्रमाणाभाससाधारणम् । अपि च स्वतःप्रामाण्ये सर्वेषामविप्रतिपत्तिप्रसङ्गः । नापि परतः; परं हि तद्गोचरगोचरं वा ज्ञानम् अभ्युपेयेत, अर्थक्रियानिर्भासं वा, तद्गोचरनान्तरीयकार्थदर्शनं वा? तच्च सर्व स्वतोऽनवधृतप्रामाण्यमव्यवस्थितं सत् कथं पूर्व प्रवर्तकं ज्ञानं व्यवस्थापयेत् ? स्वतो वाऽस्य प्रामाण्ये कोऽपराधः प्रवर्तकज्ञानस्य येन तस्यापि तन्न स्यात् ? न च प्रामाण्यं ज्ञायते स्वत इत्युक्तमेव, परतस्त्वनवस्थेत्याशङ्कयाह -
प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा ॥८॥ २२-प्रामाण्यनिश्चयः क्वचित् स्वतः यथाऽभ्यासदशापन्ने स्वकरतलादिज्ञाने, स्नानपानावगाहनोदन्योपशमादावर्थक्रियानि से वा प्रत्यक्षज्ञाने; नहि तत्र परीक्षा
२१-शंका-आपने प्रमाण का जो लक्षण कहा, सो ठीक है, परन्तु उसको प्रमाणता का निश्चय स्वतः होता है या परतः ? अर्थात् वही प्रमाण अपनी प्रमाणता का निश्चय कर लेता है अथवा किसी दूसरे प्रमाण से उसका निश्चय होता है ?
प्रत्येक ज्ञान स्वसंवेदी है, अतएव प्रमाणभूत ज्ञान अपने ज्ञानत्व के स्वरूप को तो स्वयं ही जान लेगा, परन्तु अपने सम्यक्पन-प्रमाणत्व को स्वतः नहीं जान सकता । और ज्ञानत्व तो प्रमाणाभास में भी समान रूप से रहता है । इसके अतिरिक्त यदि प्रामाण्य का ज्ञान स्वतः हो जाय तो किसी को विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिए।
यदि प्रमाणता किसी दूसरे ज्ञान से जानी जाती है तो वह दूसरा ज्ञान कौन-सा है ? प्रथम ज्ञान के विषय को ही ग्रहण करने वाला ज्ञान, अर्थक्रिया का ज्ञान अथवा प्रथम ज्ञान के विषय (जैसे अग्नि) के विना न होने वाले पदार्थ (धम) का ज्ञान ? इन तीनों ही ज्ञानों की प्रमाणता का जब तक निश्चय नहीं हो जाएगा तब तक ये ज्ञान प्रथम ज्ञान की प्रमाणता के निश्चायक नहीं हो सकते, यदि इन ज्ञानों को प्रमाणता का निश्चय स्वतः हो जाता है तो प्रथम ज्ञान ने क्या अपराध किया है जिससे वह भी अपनी प्रमाणता का निश्चय स्वतः न कर सके ? कदाचित् कहा जाय कि इन ज्ञानों को प्रमाणता भी परतः-दूसरे ज्ञान से निश्चित होती है तो अनवस्था दोष को प्राप्ति होती है, अर्थात् जैसे प्रथम ज्ञान की प्रमाणता का. निश्चय करने के लिए दूसरे ज्ञान को आवश्यकता पडो वैसे हो दूसरे ज्ञान को प्रमाणता के निश्चय के लिए तीसरे की आवश्यकता होगी। इसी प्रकार आगे भी अन्यान्य ज्ञानों की कल्पना करते-करते कहीं अन्त ही नहीं होगा। इस आशंका का समाधान करने के लिए अगला सूत्र है। अर्थ-ज्ञान की प्रमाणता का निश्चय कभी स्वतः और कभी परतः होता है ॥८॥
- जब हमें अपनी होलो आदि अभ्यस्त वस्तु का प्रत्यक्ष होता है अथवा स्नान, पान अबगाहन, पिपासा की उपशान्ति आदि अर्थक्रिया का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, तब प्रत्यक्ष की प्रमाणता का स्वतः निश्चय हो जाता है । बुद्धिमानों को ऐसे ज्ञानों के प्रामाण्य की परीक्षा करने