Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 22
________________ प्रमाणमीमांसा कक्षास्ति प्रेक्षावताम्,तथा हि-जलज्ञानम्,ततो दाहपिपासातस्य तत्र प्रवत्तिः ततस्तत्प्राप्तिः, ततः स्नानपानादीनि, ततो दाहोदन्योपशम इत्येतावतैव भवति कृती प्रमाता, न पुनर्दाहोदन्योपशमज्ञानमपि परीक्षते,इत्यस्य स्वतः प्रामाण्यम् । अनुमाने तु सर्वस्मिन्नपि सर्वथा निरस्तसमस्तव्यभिचाराशङ्के स्वत एव प्रामाण्यम्, अव्यभिचारिलिगसमुत्थत्वात् ; न लिङ्गाकारं ज्ञानं लिगं विना, न च लिगं लिगिनं विनेति । २३ क्वचित् परतः प्रामाण्य निश्चयः,यथा अनभ्यासदशापन्ने प्रत्यक्षे । नहि तत् अर्थेन गृहीताव्यभिचारमिति तदेकविषयात् संवादकात् ज्ञानान्तराद्वा अर्थक्रियानि - साद्वा, नान्तरीयार्थदर्शनाद्वा तस्य प्रामाण्यं निश्चीयते। तेषां च स्वतः प्रामाण्य निश्चयानानवस्थादिदौस्थ्यावकाशः। २४.शाब्दे तुप्रमाणे दृष्टार्थेऽर्थाव्यभिचारस्य दुीनत्वात् संवादाद्यधीनः परतः प्रामाण्यनिश्चयः; अदृष्टार्थे तु दृष्टार्थग्रहोपराग-नष्ट-मुष्टयादिप्रतिपादकानां संवादेन प्रामाण्यं निश्चित्य संवादमन्तरेणाप्याप्तोक्त्तत्वेनैव प्रामाण्यनिश्चय इति सर्वमुपपन्नम् । की आवश्यकता नहीं रहती। दाह या प्यास से पीडित मनुष्य को जब जल का ज्ञान होता है तो वह 'जल है' ऐसा ज्ञान होते ही उसमें प्रवृत्ति करता है. जल की प्राप्ति होती है, जलप्रप्ति होने पर उसमें स्नान करता है, प्यासा हो तो उसे पीता है, और उसकी दाह या प्यास बुझ जाती है । इसी से प्रमाता कृतार्थ हो जाता है । दाह या प्यास बुझने के ज्ञान की प्रमाणता की परीक्षा नहीं करता । अर्थात् वह दाह या पिपासा शान्त होने का अनुभव करता है और उस अनुभव की सचाई का निश्चय करने के लिए दूसरे प्रमाण की खोज नहीं करता उसे अपने उस अनुभव को प्रामाणिकता स्वतः ही प्रतीत होती है । जिनमें किसी भी प्रकार के दोष की आशंका नहीं है तो उन सब अनुमानों में भी स्वतः प्रमाणता का निश्चय हो जाता है, क्योंकि वे अव्यभिचारत लिंग (साधन) से उत्पन्न होते हैं । साधन (धूम) का ज्ञान साधन के हुए बिना नहीं हो सकता और साधन, साध्य (अग्नि) के बिना नहीं हो सकता। कहीं-कहीं प्रामाण्य का निश्चय परतः (दूसरे ज्ञान से) भी होता है। जब किसी अनभ्यस्त वस्तु का प्रत्यक्ष होता है तब उस प्रत्यक्ष का पदार्य के साथ अव्यभिचार निश्चित नहीं होता, ऐसी स्थिति में किसी अन्य ज्ञान से ही उसको प्रमाणता का निश्चय हो सकता है। वह दूसरा ज्ञान यातो प्रथम ज्ञान के विषय को जानने वाला उसका पोषक हो, अर्थक्रिया का ज्ञान हो अथवा (प्रथम ज्ञान द्वारा प्रदर्शित पदार्थ के) अविनाभावी पदार्थ का दर्शन हो। इन तीनों ज्ञानों की प्रमाणता का निश्चय स्वतः ही होता है, अतएव अनवस्था आदि दोषों के लिए कोई अवकाश नहीं है। __ जो आगम प्रत्यक्ष अर्थ का प्रतिपादक है, उसकी प्रमाणता यदि दुर्जेय हो तो वह संवाद आदि से निश्चित होती है। प्रत्यक्ष दीखने वाले ग्रहोपराग, नष्ट, मुष्टि आदि के प्रतिपादक वाक्यों की प्रमाणता संवाद के द्वारा निश्चित करने से अदृष्ट (परोक्ष) पदार्थ के प्रतिपादक आगम को प्रमाणता संवाद के बिना भी, केवल आप्तकथित होने से ही निश्चित हो जाती है। इस प्रकार ज्ञान की प्रमाणता का निश्चय करने में कोई गड़बड़ नहीं होती।

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