Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
View full book text
________________
प्रमाणमीमांसा
लक्षणमिति च भवन्तः, तत्कथं तस्य प्रामाण्यम्? उत्तरकालभाविनो व्यवहारजननसमर्थाद्विकल्पात् तस्य प्रामाण्ये याचितकमण्डनन्यायः, वरं च व्यवहारहेतोविकल्पस्यैव प्रामाण्यमभ्युपगन्तुम् ; एवं हि परम्परापरिश्रमः परिहतो भवति। विकल्पस्य चाप्रामाण्ये कथं तन्निमित्तो व्यवहारोऽविसंवादी ? दृष्ट (श्य) विकल्प (ल्प्य)योरर्थयोरेकीकरणेन तैमिरिकज्ञानवत् संवादाभ्युपगमे चोपचरितं संवादित्वं स्यात् । तस्मादनुपचरितमविसंवादित्वं प्रमाणस्य लक्षणमिच्छता निर्णयः प्रमाणमेष्टव्य इति ॥८॥
२८-प्रमाणसामान्यलक्षणमुक्त्वा परीक्ष्य च विशेषलक्षणं वक्तुकामो विभागमन्तरेण तद्वचनस्याशक्यत्वात् विभागप्रतिपादनार्थमाह
प्रमाणं दिधा ॥९॥ २९-सामान्यलक्षणसूत्रे प्रमाणग्रहणं परीक्षयान्तरितमिति न 'तदा' परामष्टं किन्तु साक्षादेवोक्तं प्रमाणम्-इति ।द्विधा द्वि प्रकारमेव, विभागस्यावधारणफलत्वात्। तेन प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति चार्वाकाः, प्रत्क्षानुमानागमाः प्रमाणमिति वैशेषिकाः। _____ कदाचित् यह कहा जाय कि निर्विकल्पक ज्ञान के पश्चात् सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। उसको उत्पन्न करने के कारण निर्विकल्प ज्ञान प्रमाण कहलाता है । सो यह तो मांगे हुए आभूषणों से शोभा बढ़ाना है । इससे तो यही अच्छा है कि व्यवहार को उत्पन्न करने वाले सविकल्प ज्ञान को ही प्रमाण मान लिया जाय । ऐसा मानने से परम्परा-परिश्रम नहीं करना पड़ता। इसके अतिरिक्त, विकल्प ज्ञान को अप्रमाण मानने पर उसके निमित्त से होने वाला व्यवहार अविसंवादी कैसे हो सकता है ? दृश्य (निर्विकल्प के विषय) का और विकल्प (सविकल्प ज्ञान के विषय) का एकीकरण कर लेने से, तैमिरिक ज्ञान के समान, संवाद स्वीकार करोगे तो उसका संवादकत्व उपचरित ही होगा। अतः यदि बौद्ध वास्तविक अविसंवादी ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहते हैं तो उन्हें निर्णय-सविकल्प-निश्चयात्मक-ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए।
२८-प्रमाण का लक्षण बतलाया जा चुका है । उसकी परीक्षा भी की जा चुकी है। अब प्रमाणविशेष का लक्षण कहना है । किन्तु प्रमाण के भेदों का कथन किये विना विशेष लक्षण बतलाना संभव नहीं । अतएव भेदों का प्रतिपादन करते हैं
अर्थ-प्रमाण दो प्रकार का है ॥९॥
२९-यद्यपि प्रमाणसामान्य के लक्षण वाले सूत्र (सूत्र २) में 'प्रमाण' शब्द का ग्रहण किया है, फिर भी यहाँ उसके लिए 'तत्' शब्द का प्रयोग न करके साक्षात् 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग किया है। इसका कारण यह है कि दोनों के बीच में परीक्षा का अन्तर पड़ गया हैबीच में प्रमाण की परीक्षा की गई है। प्रमाण दो प्रकार का है, अर्थात् दो ही प्रकार का है, क्योंकि एव का फल अवधारण करना होता है। अतएव एक मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले चार्वाक का, प्रत्यक्ष अनुमान और आगम को प्रमाण मानने वाले वैशेषिकों का,