Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा संवित् स्वप्रकाश स्वावान्तरजातीयं नापेक्षते, वस्तुत्वात्, घटवत् संवित् परप्रकाश्या वस्तुत्वात् घटवदिति चेत्, न; अस्याप्रयोजकत्वात्, न खलु घटस्य वस्तुत्वात् परप्रकाश्यता, अपि तु बुद्धिव्यतिरिक्तत्वात् । तस्मात् स्वनिर्णयो प्रमाणलक्षणमस्त्वित्याशङ्कयाह
स्वनिर्णयः सन्नप्यलक्षणम्, अप्रमाणेऽपि भावात् ॥३॥
१३-सन्नपि-इति परोक्तमनुमोदते । अयमर्थः-न हि 'अस्ति' इत्येव सर्व लक्षणत्वेन वाच्यं किन्तु यो धर्मो विपक्षाव्यावर्त्तते । स्वनिर्णयस्तु अप्रमाणेऽपि संशयादौ वर्तते; नहि काचित् ज्ञानमात्रा सास्ति या न स्वसंविदिता नाम । ततो न स्वनिर्णयो लक्षणमुक्तोऽस्माभिः, वृद्धस्तु परीक्षार्थमुपक्षिप्त इत्यदोषः ॥३॥
१४-ननु च परिच्छिन्नमर्थ परिच्छिन्दता प्रमाणेन पिष्टं पिष्टं स्यात् । (४) ज्ञान अपने प्रकाश में अपने अवान्तरजातीय-सजातीय ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह वस्तु है, जो जो वस्तु है वह वह अपने प्रकाश में अपने अवान्तर जातीय की अपेक्षा नहीं रखती, जैसे घट । अर्थात् जैसे घट को जानने के लिए दूसरे घर की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती।
कदाचित् कोई कहे कि ज्ञान वस्तु होने के कारण घट की तरह पर-प्रकाश्य है, तो यह ठीक नहीं । घट वस्तु होने के कारण पर-प्रकाश्य नहीं है, किन्तु बुद्धि भिन्न-अज्ञानरूप होने से परप्रकाश्य है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि ज्ञान अर्थ के समान स्व का भी निर्णय करता है । अतः स्वनिर्णय को भी प्रमाण का लक्षण कहना चाहिए । इस शंका का समाधान करने के लिए आचार्य कहते हैं
स्वनिर्णय इत्यादि । ज्ञान स्व का निश्चायक है, फिर भी वह प्रमाण का लक्षण नहीं है, क्योंकि स्वनिर्णय अप्रमाण में भी पाया जाता है ॥३॥
१३-ज्ञान स्व का निर्णायक है ऐसा कह कर प्राचीन आचार्यों के उक्त कथन का अनुमोदन किया गया है।
अभिप्राय यह है-किसी वस्तुमें जो जो धर्म हैं उन सबको लक्षण रूपसे नहीं कहा जाता। लक्षण तो वही धर्म हो सकता है, जो उसे विपक्ष अर्थात् अलक्ष्य से भिन्न करता हो-जो धर्म असाधारण हो । कोई भी ज्ञान ऐसा नहीं है जो स्वसंवेदी न हो, अर्थात् प्रमाणभूत ज्ञान भी स्वसंवेदी होता है और अप्रमाणभूत ज्ञान भी स्वसंवेदी होता है । इस कारण हमने स्वसंवेदन को प्रमाण का लक्षण नहीं कहा । वृद्ध आचार्यों ने परीक्षा के लिए उसे प्रमाण के लक्षण में सम्मिलित किया है ॥३॥
१४-शंका-जाने हुए पदार्थ को जाननेवाला ज्ञान पिष्टपेषण ही करता है।