Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 16
________________ प्रमाणमीमांसा ९ विरोधासिद्धेः । अनुमानाच्च स्वसंवेदनसिद्धिः, तथा हि-ज्ञानं प्रकाशमानमेवार्थं प्रकाशति, प्रकाशकत्वात्, प्रदीपवत् । संवेदनस्य प्रकाश्यत्वात् प्रकाशकत्वमसिद्धमिति चेत्, न; अज्ञाननिरासादिद्वारेण प्रकाशकत्वोपपत्तेः न च नेत्रादिभिरनैकान्तिकता, तेषां भावेन्द्रियरूपाणामेव प्रकाशकत्वात् । भावेन्द्रियाणां च स्वसंवेदनरूपतैवेति न व्यभिचारः । तथा संवित् स्वप्रकाशा, अर्थप्रतीतित्वात्, यः स्वप्रकाशो न भवति नासावर्थप्रतीतिः यथा घटः । तथा-यत् ज्ञानं तत् आत्मबोधं प्रत्यनपेक्षितपरव्यापारम्, यथा गोचरान्तग्राहिज्ञानात् प्राग्भावि गोचरान्तरग्राहिज्ञानप्रबन्धस्यान्त्यज्ञानम्, ज्ञानं च विवादाध्यासितं रूपादिज्ञानमिति । उसमें विरोध नहीं हो सकता । अनुमान प्रमाण से भी ज्ञान का स्वसंवेदन सिद्ध होता है । यथा( १ ) ज्ञान स्वयं प्रकाशमान होता हुआ हो पदार्थ को प्रकाशित करता है, क्योंकि वह प्रकाशक है जो-जो प्रकाशक होते हैं वे स्वयं प्रकाशमान होते हुए ही पदार्थ को प्रकाशित करते हैं, जैसे दीपक । ज्ञान स्वसंवेदनशील होने से प्रकाश्य है उसे प्रकाशक मानना असिद्ध है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, अज्ञान-संशय आदि का निवारण करने के कारण वह प्रकाशक है । कहा जा सकता है कि नेत्र स्वयं प्रकाशमान न होने पर भी पर प्रकाशक होते हैं, अतएव आपका प्रकाशकत्व हेतु अनैकान्तिक है, किन्तु यह सत्य नहीं है, वास्तव में भावेन्द्रियाँ ही प्रकाशक होती हैं और वे स्वयंप्रकाशमान भी होती हैं । (२) ज्ञान स्वप्रकाशक है, क्योंकि अर्थ का प्रकाशक है । जो स्व-प्रकाशक नहीं होता, वह अर्थ - प्रकाशक भी नहीं होता, जैसे घट । (३) ज्ञान अपने-आपको जानने में किसी दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि जो ज्ञान होते हैं वे अपने जानने में दूसरे ज्ञान को अपेक्षा नहीं रखते हैं, जैसे विषयान्तर को ग्रहण करने वाले ज्ञान से पहले होने वाला विषयान्तरग्राही ज्ञान प्रवाहका अन्तिम ज्ञान । रूपादि का ज्ञान मी ज्ञान है, अतएव उसे जानने के लिए भी दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती । तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति को अभी घटका ज्ञान हो रहा है-घटज्ञान का प्रवाह चल रहा है | उपयोग बदला और पट वाला ज्ञान होने लगा । यहाँ विचारणीय यह है कि जब तक घटज्ञान का प्रवाह चल रहा था तब तक तो यह कहा जा सकता था कि उत्तर-उत्तर का घटज्ञान पूर्व-पूर्व के घटज्ञान को जानता है, किन्तु इसी प्रवाह के अन्तिमक्षणवर्ती घटज्ञान को कौन जानेगा ? स्मरण रखना चाहिए कि उसको पटज्ञान उत्पन्न हुआ है और पटज्ञान अपने पूर्ववर्ती घटज्ञान को नहीं जान सकता वह तो पट को ही जानेगा । ऐसी स्थिति में मानना ही पडेगा कि वह घटज्ञान अपने को आप ही जानता है, तो जैसे घटज्ञान के प्रवाह का अन्तिम ज्ञान अपने को स्वयं जानता है, उसी प्रकार पूर्ववर्ती घटज्ञान भी अपने को स्वयं ही जानते हैं ।

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