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उत्तर नहीं दे सकेंगे। इसलिये लाचारीवश ही उन्होंने प्राकृत का आश्रय लिया होगा, इसमें संदेह नहीं। एक ही बात की आवृत्ति भी साधारण बात है। जब किसी को उत्तर नहीं मिलता तो वह पुनः-पुनः उसी प्रश्न को दुहराता ही है। इसलिए मेरे विचार से ये पद्य पीछे के नहीं हैं।
प्राकृत के वैयाकरणों के दो वर्ग हैं-एक त्रिविक्रम का और दूसरा मार्कण्डेय का। त्रिविक्रम के अनुयायी हेमचन्द्र, लक्ष्मीधर और सिंहराज हैं। लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रम के सूत्रों पर अपनी वृत्ति लिखी है जैसे पाणिनि के सूत्रों पर वामन, माधव आदि कितने ही वृत्तिकारों की वृत्तियाँ रची गई हैं। लक्ष्मीधर के ग्रन्थ का नाम पड्भाषाचन्द्रिका है। मार्कण्डेय के अनुयायी वररुचि हैं । पहले लिखा जा चुका है कि किस ग्रन्थ में किन-किन प्रकार की प्राकृतों का वर्णन मिलता है । ____ सब वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को प्रधान मान कर सर्वप्रथम उसी का निरूपण किया है अतः यहाँ भी प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण के विद्वान् लेखक ने पहले महाराष्ट्री के ही लक्षण दिये हैं। उसके बाद शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रंश के भी विशेष-विशेष नियम बतला दिये गये हैं, जिनसे शब्दों के निर्वचन के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेना अतिशय सरल हो गया है। __ प्रस्तुत ग्रन्थ मेरी ही प्रेरणा से श्रीसोमेश्वरनाथ संचालक मण्डल, अरेराज (चम्पारन ) के अनुसन्धान विभाग की ओर से पूर्ण परिश्रम एवं खोज के साथ निर्मित हुआ है। इसके लेखक ने इस ग्रन्थ को. अरेराज जैसे साधनहीन स्थान में, जहाँ न कोई अच्छा पुस्तकालय ही है और न सुयोग्य परामर्शदाता ही, अकेले जुटकर इस ग्रन्थ का इस रूप में निर्माण किया है। एतदर्थ विद्वान् लेखक को इस सम्बन्ध में जितनी भी बधाई दी जाय, थोड़ी होगी।