Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
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तेलोक्कगुरुं (त्रैलोक्य गुरु) - तीन लोक के गुरु। गृ निगरणे क्रयादि - गृणाति उपदिशति शास्त्रस्स यथावस्थितं अर्थं यः स गुरुः । गुरु शब्द में दो अक्षर हैं। इन दोनों अक्षरों का अलग-अलग अर्थ इस प्रकार किया गया है।
गु शब्दस्त्वन्धकारः स्यात्, रु शब्दस्तन्निरोधकः। अन्धकार निरोधित्वात्, गुरुरित्यभिधीयते॥
अर्थ - 'गु' अक्षर अन्धकार का वाचक है। 'रु' अक्षर का अर्थ है रोकने वाला। आशय यह है कि जो अज्ञान रूपी अन्धकार को रोके (नष्ट करे) उसको गुरु कहते हैं। भगवान् अधोलोक निवासी भवनपति देवों को, तिर्यग् लोक निवासी व्यन्तर, नर, पशु, विद्याधर और ज्योतिषीदेवों को तथा ऊर्ध्वलोक निवासी वैमानिक देवों को धर्म का उपदेश करते हैं अत: वे तीन लोक के गुरु हैं। ___महावीर - जो महान् वीर हो वह महावीर है। यहाँ "शूरवीर विक्रान्तौ" इस धातु से पराक्रम अर्थ में "वीर" शब्द बना है। भगवान् का महावीर नाम यादृच्छिक नहीं किन्तु गुणनिष्पन्न सार्थक है। जो नाम देवों और दानवों द्वारा परीषह और उपसर्गों को जीतने में यथार्थ और असाधारण वीरता को देख कर दिया गया है। कहा है कि - भय और भय के कारणों में अचल तथा परीषह उपसर्ग सहन करने में समर्थ होने के कारण देवों ने 'महावीर' ऐसा नामकरण किया है। '
आचाराङ्ग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन का पाठ इस प्रकार है -
समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते तस्स णं इमे तिण्णि णाम धेजा एवमाहिजंति, अम्मापिउसंतिए "वद्धमाणे" सहसम्मइए"समणे" भीमभयभेरवं उरालं अचले परिसहं सहइ त्ति कट्ट देवेहिं से णामं कयं "समणे भगवं महावीरे"।
अर्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काश्यप गोत्रीय थे। उनके तीन नाम थे। वे इस प्रकार हैं - माता-पिता का दिया हुआ नाम 'वर्धमान'। सहज सन्मति के कारण 'समणे' (श्रमण या सन्मति)। भयङ्कर और भयोत्पादक परीषह उपसर्गों को अडोल (अचल-निश्चल) रह कर सहन किये इसलिए देवों ने यह नाम दिया - 'श्रमण भगवान् महावीर'। ____ यहाँ भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त जिनवरेन्द्र' विशेषण से ज्ञानातिशय और पूजातिशय, त्रैलोक्यगुरु विशेषण से वचनातिशय और महावीर शब्द से अपायापगमातिशय प्रकट होता है। इन चारों अतिशयों में शेष अतिशय उपलक्षण सूचक है। क्योंकि अन्य अतिशय इन चार अतिशयों के बिना नहीं होते हैं अतः चौतीश अतिशय युक्त भगवान् महावीर स्वामी को वंदन करता हूँ। यह समझना चाहिए।
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