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एक वार सत्य समझा उसको अपनी कथनी' और 'करणी' में निर्भीक होकर उतारा । मनसा वाचा कर्मणा जिस सत्य की उपासना का आदर्श उन्होंने जन-समाज के सामने रखा वह आज भी एक उच्च ज्योतिःस्तम्भ की भांति विद्यमान है। परन्तु क्या हम उसकी प्रखर-प्रभा को अपने अन्धकारपूर्ण हृदयों में आज घुसने दे रहे हैं ?
ग्रन्थरचना गणिवरजी १२ वी शती के सुप्रसिद्ध उद्भट विद्वानों में से एक थे। इनका अलङ्कारशास्त्र, छन्दशाख, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र, कामतन्त्र और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था । इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर सैकड़ों ग्रन्थों की रचना की थी, जिसका उल्लेख सुमतिगणि गणधरसार्द्धशतक की वृत्ति में इस प्रकार करते हैं:
"परमद्यापि मगवतामवदातचरित निधीनां श्रीमरुकोदृसप्तवर्षप्रमित कृतनिवासपरिशीलितसमस्तागमानां समप्रगच्छामृतसूक्ष्मार्थसिद्धान्तविचारसार-पडशीति-सार्द्धशतकात्यकर्मग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि-पौषधविधि-प्रतिक्रमणसामाचारी-सङ्घपट्टक-धर्मशिक्षाद्वादशकुलकरूपप्रकरण-प्रश्नोत्तरशतक-भृङ्गारशतक-नानाप्रकारविचित्रचित्रकाव्य--शतसपस्तुतिस्तोत्रादिरूपकीर्तिपताका सकल महीमण्डलं मण्डयन्ती विद्वानमनांसि प्रमोदयति । " | .. किन्तु देवदुर्विपाक से बहुत से अमूल्य प्रन्थ नष्ट होगए और इस कारण से इस समय केवल ११ रचनायें ही प्राप्त हैं और दो के केवल नामोल्लेख ही मिलते हैं। उपलब्ध ग्रन्थों की तालिका निम्न है:१ सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्द्धशतक) प्रकरण, २ आगमिकवस्तुविचारसार (घडशीति) प्रकरण, ३ पिण्डविशुद्धि प्रकरण,
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SHAKAL