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इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती है। उसमें ऋषभदेव की जननी वृषभ से, महावीर प्रभु की जननी सिंह से और अवशिष्ट अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त २२ की माताएं हस्ति से लेकर निर्धूम अग्निशिखा पर्यन्त चौदह स्वप्न देखती हैं । कल्पसूत्र में वीरचरित्र में त्रिशलाद्वारा दृष्ट स्वप्नों के अधिकार में आचार्य भद्रबाहुस्वामी, सामान्य पाठ होने से एवं बहुलता की रक्षा करने के लिये सिंह स्वप्न से वर्णन प्रारंभ न कर हस्ति स्वप्न से ही वर्णन प्रारंभ करते हैं, तो क्या यह मान सकते है कि त्रिशला ने चौदह स्वप्नों में सर्वप्रथम सिंह का स्वप्न न देखकर हाथी का स्वप्न देखा था ?
यही क्यों ? आचार्य जिनवल्लभसूरिने स्वयं सर्व जिन पचकल्याणकस्तोत्रों में सामान्य जिनेश्वरों की स्तुति एवं कल्याणनिर्देश मात्र होने से महावीरप्रभु के पांच ही कहे हैं, तो क्या हमें जिनवल्लभसूरि का ही पृथक् अस्तित्व स्वीकार करना होगा ? या उन्हें aaraat करा होगा ? कहीं बलुतः सामान्य प्रसंग से पनाशक में महावीरदेव के पांच ही कल्याणक कहे हैं तो अतिरिक्त कल्याणक का अभाव नहीं हो जाता । अतः सामान्य विशेष व्याख्या को मध्यस्थ दृष्टि से देखें तो छ कल्याणक की मान्यता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती ।
४ - जम्बूद्वीपप्रति के 'उसमे णं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अभीई छडे होत्या' इस पाठ के अनुसार यहाँ यह सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही हैं कि क्या शास्त्रकार ने राज्याभिषेक को कल्याणक स्वीकार कर पंच उत्तरासादे' कहा है ? परन्तु इसका समाधान इसकी टीका करते हुए टीकाकार तपोगच्छीय आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य श्रीशान्तिचन्द्रगणि (जो घर्मसागरजी समकालीन विद्वान थे ) कहते हैं कि-' वीरस्य मर्मापहार इन नायं कल्याणकः ' महावीर के गर्भहरण की तरह ह
वीरगमविहार
कल्याणक
सिद्धि ।
॥ २२ ।