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उपोद्घावा जिनवल्डमसरि-साबायत्व निराकरण
पेतम्
॥२५॥
पिण्ड- I जा रही ही उसका पुनः उद्धार कर जनता के सामने रखकर अपनी असीम निर्भीकता का परिचय दिया है.। वस्तुतः गणिजी विशुद्धि का यह पट्कल्याणकों का प्रतिपादन उत्सूत्र प्रतिपादन नहीं था, किन्तु सैद्धान्तिक वस्तु का ही प्रतिपादन था। यदि यह प्ररूपणा..| टीकाइयो-|- उसूत्रप्ररूपणा होती तो तत्कालीन समम गच्छों के आचार्य इसका उम विरोध करते; प्रतिशोध में दुर्दम कदम उठाते । पर
"I आश्चर्य है कि तत्कालवत्ति किसी भी आचार्थने इस प्ररूपणा का विरोध किया हो ऐसा प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। प्रत्युत प्रतिपादन के
प्रमाण अनेकों उपलब्ध होते हैं। अतः यह सिद्ध है कि यह प्ररूपणा तत्कालीन समम आचार्यों को मान्य थी। साथ ही यह भी मानना होगा कि खुद तपागच्छीच विद्वानों ने भी षट्कल्याणक लिखे हैं अतः धर्मसागरजी की स्वयं की प्ररूपणा ही निवव-मार्ग की प्ररूपण है, आचार्य जिनवल्लभसूरि की नहीं।
इस कल्याणक के विषय में शास्त्रीय दृष्टि से विशेष अध्ययन करना हो तो मेरे शिरच्छत्र पूज्य गुरुदेव- श्रीजिनमणिसागरपरिजी म. द्वारा लिखित 'पटकल्याणक निर्णय' नामक पुस्तक देखें ।
सङ्घबहिष्कृत जो व्यक्ति पाण्डुरोग से मसिव हो जाता है उसे सृष्टि की समस्त वस्तुएं पीतवर्णी ही प्रतीत होती है वैसे ही धर्मसागरजी को विद्वत्ता का पीलिया हो गया, तत्फलस्वरूप, उचकी दृष्टि में समन गच्छवाले निव, विशुद्ध और कठोर क्रियापानी बरतर:
छ जैसा गेण खर-वर, जिनवकमसूरि जैसा प्राचार्य उत्सूत्रप्रतिपादक, मालूम हुए। जिनवल्लभरि को उत्सूत्रप्ररूपक कहने के