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पता है कि विषय में ही हैं, पर
अपने में पूर्ण है।
श्रतहमनियर श्रीमाधुनिक रिभिः षः। संशोधितेयमखिला, प्रयत्नतः शेषविषुधैश्च ॥ ७॥
टीका को देखते हुए यह मालूम होता है कि व्याख्याकार 'मूले इन्द्र बिडोजा टीका' के चक्र में नहीं फंसे हैं और न इसका व्यर्थ में कलेवर ही बढाया है, किन्तु ग्रन्थकार के आशय को विशदता और सरसता के साथ बहुत ही सुधर पद्धति से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । भाषा भी आप की दूरुद्द न होकर सरल होते हुए भी प्रवाहपूर्ण एवं परिमार्जित है। साथ ही इसकी एक यह भी विशेषता है कि विषय को रोचक बनाने के लिये प्रसंग-प्रसंग पर अनेक उदाहरण भी दिये गये हैं। उदाहरण बृहदुत्ति की तरह विस्तत न हो कर संक्षेप में ही हैं, पर जो है वे भी प्राकृत आर्याओं में। इससे स्पष्ट है कि आप का प्राकृत भाषा पर भी अच्छा अधिकार था। यह वृत्ति लघु होते हुए भी अपने में पूर्ण है।
आपके प्रणीत और भी ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनकी सूचि निम्न प्रकार है:
आपने सं. ११७२ में हारिभद्रीय पंचाशक प्रकरण पर चूर्णि, सं. ११७१ में इपिथिकी, चैत्यत्रन्दन और वन्दनक पर पूर्णिय, ११७८ में पाटण में सिद्धराज जयसिंह के राज्य में सोनी नेमिचन्द्रकी पौषधशाला में निवास करते हुए पाक्षिक | सूत्र पर सुखावबोधा नाम की टीका और सं. १९८२ में रचित प्रत्याख्यान स्वरूप की रचना की हैं।।
दीपिकाकार-उदयसिंहमूरि चन्द्रकुलीय आगमज्ञ श्रीश्रीप्रमसूरि (धर्मविधिप्रकरणकार ) के प्रशिष्य श्रीमाणिक्यप्रभसूरि (कच्छूली के पार्श्वचैत्य के प्रतिष्ठाकार) के शिष्य श्रीउदयसिंहमूरिने आचार्य यशोदेवसूरि की वृत्ति को आदर्श मानकर तदनुसार ही सं. १२९५ में ७०३