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विचार करने के पश्चात् मलयगिरिजी के शब्दों पर हम विचार करेंगे।
श्रीजिनवल्लभसूरि और श्रीमलयगिरिजी के पूर्ववर्ती आचार्य, साप्तव्याख्याकार श्रीहरिभद्रसूरिने आवश्यकसून की बृद्धृत्ति RI [ आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित पू. ३३७. १ ] में लिखा है:---
" इह च इत्थंभूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः सहननं उच्यते, न तु अस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात् ।”
अर्थात्-इस प्रकार अस्थिसञ्चय से युक्त शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं, केवल अस्थिसम्बय को ही नहीं। क्योंकि देवताओं को अस्थिरहित होने पर भी प्रथम संहनन ( वजर्षभनाराच ) युक्त होने का कथन होने से ।
इसी प्रकार सर्वगच्छमान्य नवाज टीकाकार श्रीअभयदेवसूरि स्वप्रणीत स्थानानसून की टीका ( आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित पृ. ३५७-१) में लिखते हैं:
" संहननं-अस्थिसञ्चयः, वक्ष्यमाणोपमानोपमेयः शक्तिविशेष इत्यन्ये ।"
जब आचार्य हरिभद्रसूरि केवल अस्थिसञ्चय को ही संहनन स्वीकार नहीं करते और आ. श्रीअभयदेवमूरि 'शक्तिविशेष इत्यन्ये ' कह कर इस वस्तु को स्वीकार करते हैं, ऐसी अवस्था में 'भ्रान्त है' कहना समीचीन प्रतीत नहीं होता।
तथा जीवाभिगम सूत्र में जय "सुरनेरच्या छण्इं संघयणाणं असंघयणा" अर्थात्-देव और नारकी छहों संहननों से रहित + वऋषमनाशच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, और सेवार्स ।
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