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पिण्डविशुद्धिकार १७ वीं शती के उत्तरार्द्ध में, उपाध्याय शुभविजयजीगणि अपने • सेनप्रन' में प्रश्नोत्तर करते हैं:
“पिण्डविशुद्धिविधाता जिनवल्लभगणिः खरतरोऽन्यो वा ? इति प्रमः । अत्रोत्तरम्- जिनवल्लभगणे: खरतरगच्छसम्बन्धित्वं न सम्भाव्यते, यतस्तस्कृते पौषधविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनात् कल्याणकस्तोत्रे च श्रीवीरस्य पञ्जकल्याणक8| प्रतिपादनाच्च तस्य सामाचारी भिन्ना खरतराणां च भिन्नेति ।" इसकी टिप्पणी करते हुए पं. लालचन्द्र भगवान् गांधी अपभ्रंश काव्यत्रयी की प्रस्तावना में लिखते हैं:
"किन्त्वेव सुदीर्घदृष्ट्या चिन्तने न समीचीनं प्रतिभाति" देखिये, प्रश्न क्या होता है ? और उसका उत्तर क्या मिलता है ? प्रश्न है, पिण्डविशुद्धिकार जिनवल्लभगणि खरतरगच्छीय है या अन्य ? सत्तर है कि, पौषधविधिप्रकरण में पौषध में भोजन का उल्लेख होने से और कल्याणकस्तोत्र में वीरप्रभु के पञ्चकल्याणक कहने से वे भिन्न हैं, तथा इनकी समाचारी भी भिन्न है। मानों, 'कहीं की ईट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा' नीति चरितार्थ कर रहे हों ! इस प्रश्न में पौषधविधि प्रकरण या कल्याणकस्तोत्र के प्रमाणों की क्या आवश्यकता है ? यह तो कुछ न कुछ उत्तर देना ही उत्तर का लक्ष्य प्रतीत हो रहा है।
सुमतिगणि जहाँ गणघर सार्द्धशतक की वृत्ति में "समग्रगच्छाहत-सूक्ष्मार्थसिद्धान्तविचारसार -घद्धशीति-सार्द्धशतकास्यकर्मप्रन्थ-पिण्डविशुद्धि-.......” कहते हैं, वहीं घनेश्वराचार्य सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारवृत्ति में ' अभयदेवसूरि शिष्येण मविमता
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