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यदि हम मूल टीकाकार शब्द से प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि सूत्रों के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि का ग्रहण करते है तो यह प्रश्र लत्पन्न होता है। क्या आ. मलयगिरि ने हारिभद्रीय आवश्यक टीका का अवलोकन नहीं किया था ? यदि करते तो वे स्वयं. एकपक्षीय सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने वक्तव्यों में कैसे कर सकते थे ? और यदि हम मूल-टीकाकार शब्द से सार्द्धशतक टीकाकार आ. धनेश्वरसूरि का ग्रहण करते हैं तो इस टीका में कहीं पर भी ' एव.' का प्रयोग न होने पर मी आचार्य ने किस आधार से ' एवं ' का प्रयोग किया ? चिन्त्य है।
साथ ही मलयगिरि के ये शब्द ' उपचारत इदमुक्तं न तु तत्वदृष्टया' गलतफहमी के द्योतक मात्र ही है, क्योंकि- आचार्य 13 जिनवल्लभसूरि स्वयं उपचार से ही शक्ति विशेष को संहनन स्वीकार करते हैं, निश्चय से नहीं। यदि वे औपचारिक प्रयोग न करते
तो उन्हें 'सत्तिविसेसो संघयण' न कहकर 'सुत्ते सत्तिविसेसञ्चिय संघयणं' कहना अधिक इष्ट रहता, किन्तु ऐसा कथन नहीं | है। अतः ' एवं ' और अनौपचारिक कल्पना व्यर्थ ही है और साथ ही व्यर्थ है उत्सूत्रप्ररूपक की उपाधिप्रदान करना भी । ।
दूसरी बात, इस सिद्धान्त को माननेवालों के लिये जो • उत्सूत्रप्ररूपकबिस्पन्दितेषु' विशेषण दिया गया है, वह तो कदापि युक्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यदि यह विशेषण युक्त मानें तो सूत्रकार गणधर महाराज एवं,.आचार्य हरिभद्रसूरि और आचार्य अभयदेवसूरि जैसे आतपुरुष भी उत्सत्रग्ररूपकों की कोटि में आयेंगे।
और साथ ही यह भी विचारणीय है कि एक तरफ तो आचार्य मलयगिरि स्वप्रणीव-जिनवल्लभीय 'आगमिकवस्तुविचारसार
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