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पिण्डविशुद्धि०
•. टीकाद्वयो
पेतम्
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( षडशीति) प्रकरण ' की टीका करते हुए अवतरणिका में न चायें आचार्यो न शिष्ट इति' कहकर जिनवल्लभसूरि की गिनती fशष्ट आचार्यों की कोटि में करते हैं और दूसरी तरफ उन्हें 'उत्सूत्रप्ररूपक' कहते हैं। ऐसा प्रामाणिक आचार्य के वचनों में यह विरोध क्यों ? इस प्रश्न पर विचार करने से यह स्प है कि श्रीमलयगिरि जैसे प्रामाणिक टीकाकार, उल्लेख न होने पर भी 'ए' का उल्लेख कदापि नहीं कर सकते और पूर्ववर्ती आचायों को यह मान्यता मान्य होने से उत्सूत्ररूपक शब्द का उल्लेख भी नहीं कर सकते । अतः अन्ततोगत्वा किन कारणों के वशीभूत होकर श्रीमलयगिरि को इन शब्दों का प्रयोग करना पडा, निश्चितता हम नहीं कह सकते । वस्तुतः ये शब्द विचिन्त्य है ।
किन्तु सागरजी और प्रेमविजयजीने टिप्पणी लिखते हुए यह भी ख्याल नहीं रखा कि स्वयं के तपगच्छ मान्य आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि भी जब इस वस्तु का अपने कर्मग्रन्थों में अनुकरण करते हैं तो क्या देवेन्द्रसूरि भी आगमिक ज्ञान से अनभिज्ञ थे जो उन्होने जिनवल्लभ गणि का अनुसरण किया ? नहीं, तो यह स्वतः सिद्ध है कि उपचारतः शक्तिविशेष संहनन आगमसम्मत है, आगम-विरुद्ध नहीं । ऐसी अवस्था में हम दृढतापूर्वक कह सकते हैं कि उत्सूत्रप्ररूपक आदि शब्दों को सागरजी और प्रेमविजयजी शिरमुकुट मानकर आचार्य मलयगिरि के नाम पर गणि जिनवल्लभ पर जो कीचड़ उछालने का प्रयत्न किया है वह वस्तुतः असफल ही है और स्वयं की द्वेषवृत्ति का द्योतक मात्र है ।
इह दि शिष्टाः कचिदिट्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतास्तवाभिधान पुरस्सरमेव प्रवर्त्तन्ते न बावमाचार्थो न शिष्ट हृति' षडशीति टीका, आत्मानंद सभा भावनगर से प्रकाशित पृ. १.
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उपोद्घातः ।
संहनन
निमित्त
सागर-प्रेम जलमंथन
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