________________
.
पिण्डविशुद्धि ० टीकाद्वयो
पेतम्
॥ २९ ॥
अंसइनन है। देवों और नारकियों के छड़ों संहननों से रहित होने पर संहनन रह ही नहीं सकता; जब कि आवश्यक, स्थानान आदि आगम ग्रन्थों में देव और नारकी का वज्रऋषभनाराच संहनन स्वीकार किया गया है; अतः यह विप्रतिपत्ति कैसी ? वस्तुतः अस्थिरहित होने पर भी शक्तिविशेष संहनन स्वीकार करने से ही प्रथम संहनन माना जा सकता है।
और देखिये, इसी सार्द्धशतक प्रकरण के टीकाकार चन्द्रकुलीय आ. श्रीधनेश्वरसूरि भी, जिनका सत्ताकाल आचार्य मलयगिरि से पूर्व है; इस पद्य की टीका करते हुए इसी मत को पुष्ट करते हैं:
"" सूत्रे-आगमे शक्तिविशेषः संहननमुच्यते । कोऽभिप्रायः १ वर्षभनाराचादिशब्दस्य संहननाभिधायकस्य शक्तिविशेषाभिधायकत्तयां व्याख्यातत्वात् शक्तिविशेषः संहननमागमे प्रोच्यते । ईदृशं व संहननं देवनारकयोरपीप्यत एव । तेन देवा वर्षभनाराचसंहनिनो, नारकाः सेवासंहनिन- इत्यागमाभिप्रायतो बोद्धव्यम् ॥ " [ जैन धर्म प्रसारक सभा द्वारा प्रकाशित प्र. १४.
और इसी शक्तिविशेष संहनन परंपरा को मान्य रखते हुए कर्ममंथकार प्रसिद्ध आचार्य देवेन्द्रसूरिने भी अपने शतक नामक - ग्रन्थ में यही वस्तु स्वीकार की है। ऐसी अवस्था में ऊपरि उल्लिखित शास्त्रीय प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि शक्तिविशेष संहनन सर्वमान्य है, केवल जिनवल्लभसूरि की प्ररूपणा नहीं ।
आचार्य मलयगिरि ने अपने वक्तव्य में 'मूलटीकाकारेणापि' शब्द किस टीकाकार को लक्ष्य रखकर रखा है, विचारणीय है। स्वीप एवमेवो ं मेन्थानुसारेणानुमीयते । प्रेमविनयजी किसा
उपोद्घात ।
| शक्तिविशेष
संहनन
शास्रो
कता 1
॥२९॥