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पेतम् ।
पिण्ड- TH यहाँ संघ कहा है और वह संघ बहुमाननीय है। किन्तु उन्मार्गस्थित, सन्मार्ग का विनाशक, जिनामा का नाश करके स्वच्छन्द-18 उपोद्घाता विशद्धि रूप से प्ररूपित चैत्यवासी समुदाय, जो सुख-लोलुपी है उसको यहाँ संघरूप से स्वीकार नहीं किया है । अर्थात् उन्मार्गप्ररूपक जिनवल्लमटीकाद्वयो- धैत्यवासी समुदाय-संघ को ही व्याघ्र की उपमा दी है किन्तु तीर्थ सम्मत संघ को नहीं; जो यथार्थ ही है। और इसी प्रकार के संघ को जब आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे समर्थ विद्वान भी चैत्यवास का खंडन करते हुये "(आज्ञावियुक्तः) शेषसंघः
वायत्व अस्थिसंघात एवं कह कर हड्डियों का समुदाय मात्र ही है-प्रतिपादन करते हैं तो, इस वर्तमानीय (चैत्यवासी) संघ को ॥२७॥
जो व्यान की उपमा दी है वह अयुक्त प्रतीत नहीं होती है। । दूसरी विचारणीय वस्तु यह है कि इस टीका में आये हुये " ऐदंयुगीनसहप्रवृत्तिपरिहारेण च सयालयप्रतिपादनममी मूषणं, न तु दूषणं । " वाक्य का प्रश्रय लेकर जो प्रतिपादन करते हैं कि 'जिनवल्लभ संघ बहिष्कृत थे'-किन्तु उन्हें टीकाकार के पूर्ण शब्दों का ध्यान रखना चाहिये कि टीकाकार जो संघबाधत्व को भूषण कहता है उसका आशय क्या हैं? देखिये टीकाकार के पूर्णवाक्या
"ऐदयुगीनसंधप्रवृत्तिपरिहारेण च संघ-बाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं, न तु दूषणम् । तत्प्रवृत्तेरसूत्रवेन :कारिणां || दारुणदुर्गतिविपाकश्रुस्या तत्परिहारेण प्रकृतसंघबाह्यत्वस्यैव तेषां चेतसि चित्तत्वात्तदंतर्भाचे तु तेषामपि तत्प्रतिवर्तिष्णुतयाऽनंत
भवावीपयटनप्रसङ्गात् । अत आधुनिकसंघबाह्यत्वेनैव तेषां गुमित्वं, तथा घ वेधूच्छेदबुद्धिमहापापयसामेक भवति तस्माHAमुक्त्यविना प्रमोव एक विषातज्यो, न वनीयस्यपि द्वेषधीरिति व्यवस्थितम्।" . .
ARTHAKARI
toकामुक
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