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देवोऽभूदिति द्वितीयः । ततो नन्दाभिधानो राजसूनुः छत्रानगर्या जशे इति तृतीयः । तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तावा हैं। दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवत् इति चतुर्थः। ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्त-ब्राह्मणम्य । माया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षौ उत्पन्नः इति पञ्चमः । ततो व्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डप्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजम्य त्रिशलाभिधानभायाः कुक्षौ इन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृता-नीतः तीर्थकरतया च जातः, इति षष्ठः । उक्तभवणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं षष्ठं अयते भगवतः, इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्मात्र भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षटमेवेति, सुष्ठूच्यते तीर्थकरभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ।"
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और उससे अपहृत होकर त्रिशलाकुक्षि में धारण होना अतिनिन्ध या आश्चर्य नहीं किन्तु उत्तम भव है। अतः पृथक् मवनिर्देश से उत्तम भव होने के कारण यह स्वतः ही मङ्गलस्वरूप कल्याणक हो जाता है।
३-पनाशक प्रकरण एवं टीकाकार अभयदेवसूरि द्वारा पञ्चकल्याणक स्वीकार करना अपना निजी महत्त्व रखता है। वहां सामान्य रूप से २४ तीर्थकरों के कल्याणकों की गणना का प्रसंग होने से पांच ही कहे गये है, इससे ६ कल्याणक की मान्यता में यत्किचित् भी बाधा नहीं आती. देखिये, जिस प्रकार चौवीश तीर्थदूरों की सामान्य गणना में १९वें तीर्थकर मल्लिप्रभु की स्त्रीरूप में गणना नहीं करते हैं किन्तु मल्लिनाथजी कहकर पुरुष रूप में गिनते हैं। परन्तु विशिष्ट व्याख्या में या प्रसंग में मल्लि स्त्री थी, कहते हैं तो, क्या सामान्य प्रसंग से मल्लिप्रभुका श्रीत्व छूट जाता है, और क्या वे पुरुष मान ली जाती है ? नहीं। 13