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तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती का जीव त्रिशला की रत्नमयी कुक्षि से जन्म ग्रहण करेगा । उसी दिवस से धनद के आज्ञाकारी देव सर्व प्रकार के वस्तुओं को सिद्धार्थ के घर में वृद्धि करते हैं।
इसी गर्भापहरण को मंगलस्वरूप मानकर सब ही शास्त्रकारोंने इसे कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है। किन्तु अपनी आभिनिवेशिक मान्यता के वशीभूत होकर, शास्त्रीय मान्यता एवं परंपरा का त्याग कर, कई इस कल्याणक को कल्याणक के रूप में स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता के अनुसार इसमें निम्नलिखित बाधाएँ हैं:
१. गर्भहरण असिनिन्ध कार्य होने से आश्चर्य (अच्छेरा ) है+ । जो आश्चर्य हो वह मंगलस्वरूप कल्याणक नहीं माना जा सकता। २. शास्त्रों में किसी भी स्थल पर श्रमण भगवान महावीर के छ कल्याणक हुए हैं-स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । जहाँ कहीं भी उल्लेख है वह कल्याणक शब्द से अभिहित नहीं हैं किन्तु वस्तु या स्थान शब्द से कथित हैं। ३. पञ्चाशक शास्त्र में भूतानागत और भविष्यद् रूप त्रिकालभावि चौवीस चौवीस तीर्थंकरों के कल्याणकों की संख्या-परिमाण सूचन करने में महावीर के पांच ही कल्याणक माने हैं। टीकाकार अभयदेवसूरिने भी पांच ही लिखे हैं। यदि गर्भापहार छठा होता तो उसकी संख्या क्यों नहीं देते ? । १. यदि 'पंच हत्धुत्तरे होत्था, साइणा परिनिव्वुए' आदि से गर्भहरण को भी कल्याणक - • + " नीचर्गोत्रविपाकरूपस्य अतिनिन्यस्य अश्यरूपस्य गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्वकथने अनुचितं" कल्पमु. प. .
इसी पर टिप्पन करते हुए आ. सागरानंद लिखते हैं-'म पहारोऽशुभः'। "अकल्याणकभूतस्य गर्भापहारस्य" कल्पकिरणावली। "करोषि ! श्रीमहावीरे, उथ कल्याचकानि षट। यत्तेचेकमकल्याण, विप्रनीचकुलत्वतः ॥१॥" गुरुतत्त्वप्रदीप । संपादक ।
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