________________
भवतीत्यभिप्रायः ।............इत्यादि स्वयं रचित ग्रन्थों के प्रमाणों से संदेह का अवकाश ही नहीं रह पाता।
पदकल्याणक शास्त्रीय मतानुसार प्रत्येक तीर्थकर के व्यवनर, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पांचकल्याणक अनिवार्य रूप से होते ही हैं। परन्तु श्रमण भगवान् महावीर के ईन पांच कल्याणों के अतिरिक्त एक छठा कल्याणक और हुआ, वह था गर्भापहरण* । यह घटना इस प्रकार वर्णित मिलती हैं:
४ इस प्रथम कल्याणक का नाम एक च्यवन ही नहीं, किंतु अवतरण गर्भ, गर्माधान आदि अनेक नाम शास्त्रकार फरमाते है, जैसे कि बाचार्यजिनमवनिमणजी मानीनी शायरम जामलिलाखमणणाणनिवाण पंचकमाणे । तित्ययराणं नियमा, करंति सेसेसु खित्ते ॥ १॥" इस गाथा में अवतरण कहते हैं, आचार्य हरिभद्रसरिजी पंचाशक की "मम्मे जम्मे यतहा. मिक्समणे व पाणनिबाणे । भुवनखण जिणाणं, काणा होति णागचा ॥३॥"इस गाधा में गर्भकल्याणक और इसकी टीका में नबाटीकाकार आ. अभयदेवसूरिजो इसे गर्भाधान कहते हैं।
इन निर्दिष्ट प्रमाणो से निश्रित यह हुआ कि-देवलोक स च्यवनमात्र को ही नहीं अपितु वचकर माता को कुक्षि में तीर्थकर गर्भतया उत्पन | होना कल्याणक है, इसी कारण पत्रकार स्थान स्थान पर लिखते हैं कि-"चुए बहत्ता गम्भ चर्कते" अर्थात् देवलोक से चने और च्यबकर माता | की कुक्षि में गर्भतथा उत्पन्न हुए । संपादक।
जैसे च्यवन शब्द स्वयकर माता की कुक्षि में गर्भतया उत्पन होने का द्योतक है. वैसे ही गर्भापहार शब्द हरण मात्र का नही, किंतु देवानंदा की कुक्षि से अपहरण द्वारा त्रिशला की कुक्षि में स्थापन करने रूप अर्थ का द्योतक है। यही बात तपागच्छीयोपाध्याय जयविजयजी कल्पदीपिका में लिखते हैं, " गर्मस्य-श्रीवर्द्धमानरूपरम हरगं-त्रिशलाक्षी शक्कामण-गर्भहरणं "। इस तरह त्रिशला की कुक्षि में गर्भाधानरूप गर्भहरण-गर्भापहार को कल्याणक न मानना किसी प्रकार युक्तियुक्त नहीं, यदि उपरोक व्याख्योपेत गर्मापहार कल्याणक मानने योग्य न हो तो कल्पसूत्रोक्त "एए चचदस महामुमिणे
वि
35