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उपोद्घातों
अभयदेका मूरिशिष्यत्र सिद्धि
पिण्ड- 1 इत्यादि अवतरणों से सिद्ध है कि गणिजी नवाजीवृत्तिकारक आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे। उपसम्पदा के विना शिष्यत्व विशद्धिः स्वीकृत नहीं हो सकता तो पट्टधर आचार्यत्व की कल्पना-कल्पना मात्र ही रह जाती है । अतः यह मानना ही होगा कि जिन- टीकाद्वयोवा वल्लभगणिने चैत्यवास त्याग कर अभयदेवसूरि से उपसम्पदा श्रहण की थी। इसलिये बुरावधान जिनदत्तसूरि जैसे समर्थ विद्वान् पेतम्
स्थान स्थान पर जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं।
केवल यही नहीं किन्तु आचार्य जिनवल्लभसूरि स्वयं स्वप्रणीत श्रावकत्रतकुलक में आचार्य अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं:-- "जुगपचरागमसिरि-अभयदेवमुणिवहपमाणसुद्धेण । जिणवल्लहगणिणा मिहि-वयाइ लिहियाइ मुद्धेण ॥ २८॥"
गणिजी स्वयं को आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य ही नहीं किन्तु अष्टसप्ततिका में तो जिनेश्वरसूरि का शिष्य और अभयका देवसूरि के पास श्रुताध्ययन और उपसम्पदा ग्रहण करने का उल्लेख भी करते हैं:
"लोकार्यकर्चपुरगच्छमहाघनोत्थ-मुक्ताफलोजबलजिनेश्वरसरिशिष्यः।
प्राप्तः प्रथां भुवि गणिजिनवल्लभोत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ।।" साथ ही स्वप्रणीत प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतं काव्य में जहां आचार्य अभयदेवसूरि को “के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुता विश्रताः ?" इस प्रश्न के उत्तर में "श्रीमदभयदेवाचार्याः” का उल्लेख किया है, उसकी अवचूरि करते हुए तपागच्छनायक श्रीसोम. | सुन्दरसूरि के शिष्यने (सं. १४८६ में ) ' सद्गुरवः ' के स्थान पर 'मद्गुरकः ' पाठ स्वीकार किया है:Dil.: "श्रीपाके 'इति वचानात् श्रीधातुः । ममामयं पदातीति मदभयदस्तस्मिन् यो मदमयं पदातीति, तत्र मम मना प्रीप्तियु
RECTORREE
॥१६।
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