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इत्याद्या सर्व विद्यार्णवसकलभुवः सञ्चरिष्णूभकीर्तिः, स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः॥१॥"
है। उपोधाता बेशुद्धि वे अपने हाथों से मशि जिनवल्लभ को आचार्य अभयदेवसूरि के पट्टधर पद पर कदापि स्थापित नहीं करते । स्यापित करना अमयदेव काद्वयो
स्पष्ट प्रतिपादन करता है कि गणिजीने आचार्य अभयदेवसूरिजी के पास में उपसम्पदा ग्रहण करली थी, अर्थात् शिष्यत्व स्वीकार 18 रिशिष्यपेतम् || कर चुके थे । सं. ११०० में लिखित पट्टावलि में कवि पल्द जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार करते हैं:- व सिद्धि।
सुगुरु जिणेमरसूरि नियमि जिणचंद सुसंजमि । अभयदेउ सबंग नाणी, जिणवल्लहु आगमि ॥" 1१५॥
आचार्य जिनवल्लभसूरि के प्रपौत्र पट्टधर और उ. जिनपाल तथा सुमति गणि के गुरु आचार्य जिनपतिसूरि स्वरचित संधपट्टक वृत्ति में लिखते हैं कि-' चैत्यवास को चतुर्गतिभ्रमणदायक मानकर जिनवल्लभजीने आचार्य अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा प्रहण की थी':
" सुगृहीतनामधेयः, प्रणतप्राणिसन्दोहवितीर्णशुभभागधेयः, चैत्यवासदोषभासनसिद्धान्ताकर्णनापासितकृतचतुर्गतिसंसारायासजिनभवनवासः, सर्वज्ञशासनोत्तमाङ्गस्थानाला]दिनवानवृत्तिकन्ट्रीमदमयदेवसूरिपादसरोजमूले गृहीतचारित्रोपसम्पत्तिः, करुणासुधातरङ्गिणीतरङ्गरकरस्वान्तः सुविधिमार्गावभासनप्रादुःषविशदकीर्तिकौमुदीनि पूदितदिक्सीमन्दिनीवदानध्वान्तः, स्वस्योपसर्गमभ्युपगम्यापि विदुषा दुरध्वविध्वंसनमेवाधेयमिति' सत्पुरुषपदवीमदवीयसी विधानः, समुजितरिभगवान् श्रीजिनवल्लमसूरिः....."
साथ ही इन्हीं जिनवल्लभ गणि रचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार ( सार्द्धशतक ) प्रकरण पर वृहद्च्छीय श्रीधनेश्वराचार्यने सं. | ११७१ में टीका रचना पूर्ण को है, (स्मरण रहे कि जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास ११६७ में हुआ था, उसके चार वर्ष पश्चात् ।
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