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पिण्ड विशुद्धि टोकाइयो- पेवस्
उपोद्घातो | उपसम्पदा
ग्रहण विचार।
SARKARYANA
है और साहित्य-जगत् में यथार्थ स्थिति का दिग्दर्शन छोजाय, इसलिये उनके प्रमुख प्रमुख विकल्पों पर विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है। सागरजीने जिनवल्लभगणि के विषय में जो विभिन्न विवाद ठाये हैं उनमें से प्रमुख निम्नलिखित है:१-आचार्य अभयदेवसूरि के पास इनने उपसम्पदा प्रहण नहीं की थी, अर्थात् शिष्य नहीं बने थे। २-षट्कल्याणक की
व्य नही बन थ। २-षट्कल्याणक की प्ररूपणा उनकी उत्सूत्रप्ररूपणा थी। ३-उत्सूम्रप्ररूपणा के कारण वे संघ बहिष्कृत थे।४-पिण्डविशुद्धि आदि सैद्धान्तिक प्रन्थों के प्रणेता जिवल्लभ नाम के कोई दूसरे आचार्य थे। अतः अब इन चारों विकल्पों पर हम क्रमशः विचार करते हैं:
उपसम्पदा वस्तुतः यदि कोई व्यक्ति गच्छ--व्यामोह से प्रमाणों के सद्भाव में भी केवल 'येन केन प्रकारेण प्रसिद्धिमान् पुरुषो भवेत् । नीति को अपनाकर अपने लक्ष्य की कालिमा को महापुरुषों पर लगाने का प्रयत्न करता है तो वह दया का पात्र ही है। आधुनिक समय में ही देखिये, महात्मा गांधी के सत्प्रयत्नों को सहन न कर अपनी दूषित मनोवृत्तियों से उनका वध करनेवाला गोडसे, महात्मा के नाम के साथ ही सर्वदा के लिये अमर हो गया ! उसी प्रकार अपनी निहवताभरी प्ररूपणाओं से संघर्षसाहित्य में धर्मसागरजी भी सदा के लिये उल्लेखनीय हो गये ।।
आचार्य जिनवल्लभसूरि के वृत्त को हम ऊपर देख आये हैं कि मूल में आप कूर्चपुरीय चेत्सवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और भाचार्य अभयदेवसूरि से सैद्धान्तिक वाचना प्राप्तकर, सुविहित साधुश्री के वाचरण-व्यवहारों को समझकर, चैत्यवास का त्यागकर अभयदेवाचार्य के पास सपसम्पदा (पुनक्षिा) ग्रहण की। धर्मसागरजी से चार शताब्धि पूर्व ही श्रीसुमतिगणि और
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