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हम इसे कल्याणक स्वीकार नहीं करते हैं तो प्रभु ऋषभदेव का निर्वाण प्राप्त करना उनके स्वयं के लिये मंगलस्वरूप, आनन्दधामप्राप्तिरूप कदापि नहीं हो सकता तथा उनका निर्वाण कल्याणक, समाज के लिये श्रेयस्कर भी नही हो सकता। परन्तु आधर्य है कि हम इसे मंगल-स्वरूप कल्याणक अंगीकार करते हैं-करना ही पड़ता है। अनः विचार करना चाहिये कि एक आश्चर्य को तो इम कल्याणक नहीं मानते और दो आश्चर्यों को कल्याणक रूप में स्वीकार करते हैं, क्या यह नीति उचित कही जा सकती है? | यदि गर्भापहार मंगलमय न होता तो आचार्य हेमचन्द्रसूरि अपने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के दशमपर्व, द्वितीय सर्ग में 15 इसे मंगलस्वरूप कदापि स्वीकार नहीं करते, वे कहते हैं।
"देवानन्दागर्भगते, प्रभो तस्य द्विजन्मनः । बभूव महती ऋद्धिा, कल्पद्रुम इवागते ॥ ६ ॥ वस्था गर्भस्थिते नाथे, दूधशीतिदिवसात्यये । सौधर्मकल्पाधिपते, सिंहासनमझम्पत ॥ ७॥+ ज्ञात्वा चावधिना देवा-नन्दागर्भगतं प्रभुम् । सिंहासनात् समुत्थाय, शक्रो नत्वेत्यचिन्तयत् ॥ ८ ॥
+ इस पद्यमें कलिकालसर्पक आचार्य हेमचन्द्रसूरि स्पष्ट फरमाते हैं कि-देवानन्दा की कुझिमें प्रभु महावीरदेव के अवतरित होनेको बयासी दिवम बीत जाने पर पौधर्मेन्द्रका आसन कपिल हुआ, अतः शान्तिचन्वीय जम्बूद्वीपप्राप्तिति के-" तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावषयः सकसमुरारेन्त्राः जीतमिति विधित्ववो युगपत्यसम्ममा उपतिष्ठन्ते " इस कथनानुसार जिसमें इन्द्रादि देवताओंका आन! प्रभृति न हुआ हो उसे कल्याणक न माननेवालोने देवानन्दाकी कुक्षिमें वीरविभुके अवतरणको, जिसे कि हरिभवसति व अमयदेवरि जैसे प्रामापिक आचायोंने पंचाशक प्रकरण मूल व पत्तिमें स्पष्टतया काल्याणक माना है, उसे कल्याणक नही मानना चाहिये। संपादक ।
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