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जिनपाळोपाध्याय ( जिनका अस्तित्व दीक्षा पर्याय १२२१ से १३१० तक है) ने अपने अन्धों में यह बात स्वीकार की है।
आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य और नवाङ्गटीकाकार श्रीअभयदेवरि के सतीर्थ्य गुरुभ्राता श्रीजिनचन्द्रसूरिने सं. ११२५ में औरंगशामा कक्षा मनम की रणना पूर्ण की । उसकी पुष्पिका में लिखा है--
" इति श्रीमजिनचन्द्रसूरिकता तद्विनेयश्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिसमभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणि(ना) प्रतिसंस्कृता, जिनबल्लभगणिना च संशोधिता, संबेगरजशालाऽऽराधना समाप्त।।" अर्थात्-श्रीजिनचन्द्रसूरिप्रणीत उनके विनेय प्रसन्नचन्द्राचार्य की अभ्यर्थना से गुणचन्द्रगणि (जो आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए) द्वारा प्रतिसंस्कृत और गणि जिनवल्लभ ारा संशोधित संवेगरंगशाला पूर्ण हुई । इससे स्पष्ट है कि यदि जिनवल्लभगणि उपसम्पदा प्रहण कर आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य न बने होते तो जिनचन्द्रसूरि जैसे, अपने सतीय अभयदेवसूरि, एवं शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य, हरिभद्रसूरि, वर्धमानसूरि आदि समर्थ विद्वानों के रहते हुए एक चैत्यवासी गणि से अपनी कृति का संशोधन करवाय-संभावना नहीं की जा सकती ।
सचमुच में जिनवल्लभगणि यदि अभयदेवसूरि के शिष्य बने न होते और उत्सूत्रप्ररूपक होते तो अभयदेवरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् गच्छ में असाधारण प्रतिभाशाली और गीतार्थप्रवर आचार्य देवभवसूरि, जिनके सम्बन्ध में सुमतिगणि कहते है:|.. "सत्तर्कन्यायचर्चाचितचतुगिरः श्रीप्रसभेन्दुसरिः, मूरिः श्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मनिर्देवभद्रः। ___+ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि-सं. ११२५ से पूर्व ही जिनवल्लमणि चैत्यबास का परित्याग कर उपसंपदा प्रहणपूर्वक नांगटीकाकार। श्रीममयदेवसूरि के शिम्य बन चुके थे। संपादक ।
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