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है, और यदि क्वांटम गैर-यूक्लिड ढंग से व्यवहार कर रहा है और यूक्लिड की ज्यामिती का अनुगमन नहीं कर रहा है. तो हम क्या कर सकते हैं? यह इस ढंग से व्यवहार कर रहा है। और हमें सत्य तथा वास्तविकता के व्यवहार को ही स्वीकारना पड़ेगा।' मानव चेतना के इतिहास के बड़े निर्णायक क्षणों में से एक है यह बात। फिर ऐसा विश्वास सदा से था कि किसी चीज से ही कोई और चीज बन सकती है। बात बहुत सीधी और सहज है, ऐसा होना ही चाहिए। ना-कुछ में से कुछ कैसे निकल सकता है। तो पदार्थ मिट जाता है, और वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सब कुछ ना कुछ से ही जन्मा है और सब कुछ पुन: ना-कुछ में ही विलीन हो जाता है। अब वे ब्लैक होल्स (कृष्णविवर) की बात कर रहे हैं। ये ब्लैक होल्स विराट शून्यता के छिद्र हैं। मैं इसे विराट ना-कुछपन कह रहा हूं क्योंकि यह ना-कुछपन मात्र कोई अनुपस्थिति नहीं है। यह ऊर्जा से अपूरित है, लेकिन यह ऊर्जा ना-कुछपन की है। वहां पाने के लिए कुछ भी नहीं है, किंतु वहां ऊर्जा है। अब वे कह रहे हैं कि अस्तित्व में कृष्ण-विवर होते हैं। वे सितारों के समांतर हैं। सितारे सकारात्मक हैं, और हर सितारे के समांतर एक ब्लैक होल है। सितारा 'है', ब्लैक होल 'नहीं है।' और हर तारा जब थक जाता है, बोझिल हो जाता है तब ब्लैक होल बन जाता है। और हर ब्लैक होल जब आराम कर चुका होता है तो तारा बन जाता है।
पदार्थ अ-पदार्थ में परिवर्तित होता रहता है। पदार्थ अ-पदार्थ बन जाता है, अ-पदार्थ पदार्थ बन जाता है। जीवन मृत्यु बन जाता है, मृत्यु जीवन बन जाती है। प्रेम घृणा बन जाता है, घृणा प्रेम बन जाती है। ध्रुवीयताएं लगातार बदलती रहती हैं।
यह सूत्र कहता है 'उनके स्थूल, सतत, कम, सर्वव्यापी और क्रियाशील स्वरूप पर संपन्न हुआ संयम, पंचभूतों, पांच तत्वों पर आधिपत्य ले आता है।'
पतंजलि यह कह रहे हैं कि यदि तुम अपने साक्षीभाव के सच्चे स्वरूप को समझ गए हो, और तब तुम एकाग्र होते हो, तुम किसी पदार्थ पर संयम साधते हो, तो तुम इसे प्रकट या लुप्त कर सकते हो। तुम चीजों को मूर्तमान करने में सहायक हो सकते हो क्योंकि वे ना-कुछ से आती हैं। और तुम चीजों को अमूर्त होने में सहायक हो सकते हो।
भौतिकविदों के लिए यह अब भी जानना शेष बचा है कि यह संभव है या नहीं। यह तो घट रहा है कि पदार्थ बदलता है और अपदार्थ बन जाता है, अपदार्थ बदलता है, पदार्थ बन जाता है। इन पचास सालों में उन्हें अनेक बेतुकी बातें पता लगी हैं। यह युग सर्वाधिक क्षमतावान युग है, जिसमें इतना अधिक ज्ञान का विस्फोट हुआ है कि इस सबको एक व्यवस्था में सीमित कर पाना लगभग असंभव प्रतीत होता है। व्यवस्था कैसे बनाई जाए? पचास साल पहले तक स्वयं में संपूर्ण सिद्धात बनाना बहुत सरल था। अब असंभव है। वास्तविकता ने हर तरफ से अपनी उपस्थिति इस भांति दर्ज कराई है कि सारे मतवाद, सिद्धांत, प्रणालियां छिन्न-भिन्न हो गए हैं। वास्तविकता इन सभी की तुलना में कहीं ज्यादा सिद्ध हुई है।