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पर्युषण-पर्व
जीवन का क्या अर्थ यहाँ है,
___ क्यों कञ्चन-सा तन पाया है ? क्या इसको तुम समझ सके हो; क्यों नर भूतल पर आया है ॥
-मानव पर्युषण पर्व में क्या करना चाहिए ? यह प्रश्न आप लोगों में से बहुत-सों के मन में उठता होगा ! और मेरे विचार में इस प्रकार का प्रश्न जागृत मन में ही उठ सकता है । प्रसुप्त मन में कभी प्रश्न उठता ही नहीं है । इस विशिष्ट पर्व के मधुर क्षणों में सब से पहले भावना संशुद्धि पर ही ध्यान देना चाहिए । क्योंकि भावना संशुद्धि पर ही हमारे जीवन की संशुद्धि आधारित है । भावना की संशुद्धि किस प्रकार से हो ? इस विषय में 'अध्यात्म कल्पद्रुम' में कहा गया है -
"पर - हित - चिन्ता मैत्री,
पर - दुःख - विनाशिनी करुणा । पर - सुख - तुष्टि र्मुदिता;
पर . दोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥" भावनाएँ चार हैं-मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा । मैंने अभी आपसे कहा था, कि मनुष्य के जीवन में उत्थान और पतन मनुष्य के अपने विचारों पर ही आधारित है । चित्त-शुद्धि के लिए विचार-शुद्धि आवश्यक है । विचार-शुद्धि का प्रशस्त मार्ग ही इस भावनायोग में आचार्य ने बताया है । सबसे पहली भावना है, मैत्री-भावना । मैत्री क्या है ? संसार के समस्त जीवों के प्रति मित्रता रखना । अपने स्वार्थ को छोड़कर परार्थ का विचार करते रहना ही वस्तुतः मैत्री-भावना है । दूसरी भावना है—करुणा-भावना । संसार के दीन-हीन और दुःखी जीवों के दुःखों को दूर करने की भावना को 'करुणा' अथवा 'दया' कहते हैं । संसार के सुखी जीवों के सुखों को देखकर ईर्ष्या न करके प्रसन्नता व्यक्त करना ही 'मुदित-भावना' है । दूसरों के दोषों की ओर ध्यान न देना ही 'उपेक्षा-भावना' है । इन चार भावनाओं के चिन्तन एवं मनन से चित्त के विचार-द्वेष, क्रूरता, ईर्ष्या और दोष-दृष्टि नष्ट हो जाते हैं । अतः इन पर्व-दिवसों में
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