Book Title: Paryushan Pravachan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 16
________________ पर्युषण पर्व Continue the habit it shapes your character. Continue the character it shapes your destiny." " अपने विचार को स्वतन्त्रता दीजिए, वह अच्छा बन जाएगा । इच्छा को स्वतन्त्रता दीजिए वह कार्य बन जायेगी । कार्य, आदत बन जाता है । धीरे-धीरे वह आदत ही आचार बन जाती है । और यह आचार ही मनुष्य के जीवन का निर्माण करता है ।" अतः आप अपने मन में सदा शुभ विचार ही करो, जिससे आपका आचार पवित्र बन सके । अशुभ विचार से तो अनाचार पैदा होगा । अपने मन में वैर के काँटे बोकर प्रेम के फूल की आशा करना व्यर्थ है । चित्त के विकारों को शान्त कीजिए, यही शान्ति का राज मार्ग है । अपने जीवन का उत्थान और पतन आपके अपने हाथ में ही है । इसी दिव्य सन्देश को लेकर पवित्र पर्व 'पर्युषण' आपके जीवन के द्वार पर आया है । पर्व पर्युषण आया आज की शुभ वेला में पवित्र पर्व 'पर्युषण' आपके जीवन में प्रवेश कर रहा है । पूरे एक वर्ष के बाद यह आपको जगाने आया है । अष्ट-दिवसीय इस पवित्र पर्व का आज प्रथम दिवस है । इस वर्ष में आपने क्या पाया, कितना खोया ? यह सब जाँचने और परखने का यह शुभ अवसर है । श्रमण संस्कृति का यह एक विशिष्ट पर्व है । श्रमण - संस्कृति और श्रमण - विचारधारा में इस पर्व का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । 'पर्व' शब्द का अर्थ है— परम पवित्र दिवस । वैसे तो जीवन का प्रत्येक दिवस पवित्र होता है, परन्तु आज का दिवस तो विशेष रूप से पवित्र है । पर्व दो प्रकार के होते हैं-"लौकिक और लोकोत्तर ।" लौकिक पर्व का अर्थ होता है- हर्ष, उल्लास और आमोद-प्रमोद । वह शरीर की सीमाओं में ही बन्द रहता है । शरीर में स्थित चेतनामय ज्योति तक वह नहीं पहुँच पाता । लौकिक पर्व मनुष्य के शरीर का ही पोषण करता है, उसके मन और आत्मा का नहीं । इसके विपरीत लोकोत्तर पर्व शरीर की सीमाओं से ऊपर ज्योतिर्मय चेतना के दिव्य - लोक में पहुँच कर मनुष्य को आत्म-रत, आत्म- संलग्न और आत्म- प्रिय बनाता है । इसमें शरीर का शोषण भले ही हो, परन्तु आत्मा का पोषण ही होता है । शरीर को भोजन भले ही न मिले, किन्तु आत्मा को तो तप, त्याग, संयम, वैराग्य और विवेक का भोजन मिलता ही है । शरीर का Jain Education International ५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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