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पर्युषण-प्रवचन
की खोज आपको करनी चाहिए थी, जिस नयन से आपको अपने 'अमृत - भाग' का अनुसंधान करना चाहिए था, वह आप न कर सके । वह 'नयन' क्या है ? सन्त कहता है — मनुष्य के मन का 'दिव्य - विचार' ही वह 'नयन' है, जिससे प्रभु की दिव्यता को, आत्मा के भव्य स्वरूप को आप देख सकते हैं—जान सकते हैं । आत्मा को अपने स्वरूप को देखा नहीं जाता, जाना जाता है । और यह आत्मा ? जिसे आप जानना चाहते हैं ।
शिष्य ने अपने गुरु से पूछा – गुरुदेव ! वह कौन - सा तत्त्व है, जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है ? “कस्मिन् विज्ञाते सर्व विज्ञातं भवति । " गुरु ने कहा – “ वत्स ! वह तत्त्व, आत्मा है । " गुरु ने फिर आगे कहा - " आत्मा वारे श्रोतव्यः, आत्मा बारे मन्तव्यः, आत्मा वारे निदिध्यासितव्यः । " अरे ! सब कुछ छोड़कर, इस आत्मा को ही सुन, इसी का मनन कर, और इसी का निदिध्यासन - अनुभवन कर ! यही है, वह परम ज्योति परमात्मा, जिसे तू खोज रहा है ।
मैं आप लोगों से कह रहा था, कि मनुष्य जीवन के दो रूप हैं— " मर्त्य और अमृत ।” शरीर, इन्द्रिय और मन - यह सब मर्त्य है, परन्तु इन सब से परे जो चेतनामय तत्त्व है, वही अमृत है । उसका दर्शन चर्म नेत्रों से नहीं, दिव्य - नयनों से करो । इसी में जीवन का उत्थान है । इसी में जीवन का विकास है । यही है, मनुष्य जीवन का सच्चा संलक्ष्य | साधना करो, इसे साध सकोगे ?
इस पुद्गलमय देह में प्रसुप्त अमृत-तत्त्व को जागृत करने के लिए बस, एक ही मार्ग है- 'विचार को आचार में परिणत होने दो ।' बीज अंकुर में बदल कर वृक्ष बन जाता है । तभी उसमें फल-फूल पैदा होते हैं । विचार, जब आचार में बदल जाता है, तब उसमें से ज्योति प्रकट हो जाती है । मनुष्य का जीवन क्या है ? उसके विचारों का प्रतिफल । जैसा वह सोचता है, वैसा वह बन जाता है- 'As a man thinks in his heart, so he is."
यूरोप का विख्यात दार्शनिक 'इमरसन' कहता है : "Allow the thought it may lead to choice. Allow the choice it may lead to an act. Allow the act it may form the habit
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