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पर्युषण-पर्व
उत्थान और पतन
मनुष्य के जीवन का उत्थान और पतन कहीं बाहर से नहीं, उसके अन्दर से ही होता है । मनुष्य है क्या ? क्या वह एक मिट्टी का पिण्डमात्र ही है ? क्या वह मांस और अस्थि का एक ढाँचा मात्र ही है ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता । मनुष्य में जो कुछ बाहरी रंग-रूप है, वह तो उसका भौतिक रूप है । उसकी इस भौतिकता में ही उसकी दिव्यता का निवास है । मनुष्य-जीवन का गम्भीर अनुशीलन करने से आप यह भली-भाँति जान सकेंगे कि उसके जीवन के दो रूप हैं-"मर्त्य-भाग' और 'अमृत-भाग'।" भौतिक रूप और आध्यात्मिक रूप । जो कुछ आप देख रहे हैं, वह मनुष्य का 'मर्त्य-भाग' है, भौतिक रूप है, वह तो एक पुद्गल पिण्ड है । उस पुद्गल पिण्ड के भीतर मनुष्य के 'अमृत-भाग' की सत्ता विद्यमान है, जिसे आप इन चर्ममय नेत्रों से नहीं देख सकते । उसके संदर्शन के लिए दिव्य नेत्र की आवश्यकता है । दिव्य-वस्तु का साक्षात्कार दिव्य नेत्रों से ही करना चाहिए । सन्त आनन्दघन कहते हैं :
"चर्म-नयन थी मारग जोवतां रे,
भूल्यो सकल संसार । __ जे नयने करी मारग जोइए रे,
नयन ते दिव्य विचार ॥" अरे मनुष्य ! तू प्रभु के दर्शन की प्रतीक्षा कर रहा है ? तू मार्ग में खड़ा प्रभु की राह निहार रहा है ? तू स्वयं भगवान बनने के प्रयत्न में है। अच्छी, बहुत अच्छी है तेरी यह भावना । परन्तु इन चर्ममय नेत्रों से प्रभु के दर्शन करने का प्रयत्न तो तूने आज से नहीं, अनन्त काल से किया है । सच बतला, क्या तुझे सफलता मिली ? अरे भोले भाई ! यह तेरी भूल है । और तू ही क्या ? यह समस्त संसार ही माया की भूल-भुलैया में भूला-भूला-सा फिर रहा है-अनन्त-अनन्त काल से । क्यों ? आपका प्रश्न गम्भीर और समुचित है । आपके 'क्यों' का समाधान सन्त आनन्दघन ने दे दिया है । जिस नयन से प्रभु
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