Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (५) अपीपचत् । पच्+णिच् । पाच+इ। पाचि+लुङ् । अट्+पाचि+ल् । अ+पाचि+च्लि+ल । अ+पाचि+तिप् । अ+पाचि+च+त्। अ+पाच्+अ+त् । अ+पच+अ+त्। अ+पच्+पच्+अ+त् । अ+प-पच्+अ+त। अ+पि-पच्+अ+त् । अ+पी-पच्+अ+त् । अपीपचत्।
यहां डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से प्रथम हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच् प्रत्यय करने पर णिजन्त 'पाचि' धातु से लुङ् (३।२।११०) से लुङ् प्रत्यय, 'लङ्लुङ्लुङ्क्ष्वु डुदात्त:' (६।४।६२) से अट् आगम, लि लुङि' (३।१।४३) से चिल विकरण प्रत्यय, 'णिश्रिद्रुभ्य: कर्तरि चङ्' (३।१।४८) से च्लि के स्थान में चङ् आदेश, ‘णेरनिटि' (६।४।५१) से णिच् का लोप, ‘णौ चङ्गयुपधाया हस्व:' (७।४।१) से अंग की उपधा को ह्रस्वत्व और 'चडि' (७।४।१) से पच् धातु के प्रथम एकाच अवयव पच्' को द्वित्व होता है। इस सूत्र से उस पूर्व एकाच अवयव पच्' की अभ्यास संज्ञा होती है। 'सन्वल्लघुनि चङ्परोनग्लो (७।४।९३) से सन्वद्भाव होकर सन्यत:' (७।४।७९) से 'प' अभ्यास के अकार को इकार आदेश और दी? लघो:' (७।४।९४) से उसे दीर्घ होता है। अभ्यस्त-संज्ञा
(५) उभे अभ्यस्तम्।५। प०वि०-उभे १।२ अभ्यस्तम् ११ । अनु०-द्वे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-ये द्वे विहिते ते उभे समुदिते अभ्यस्तसंज्ञके भवतः । उदा०-ददति । ददत् । दधतु।
आर्यभाषा: अर्थ- इस द्विवचन प्रकरण में जो (द्वे) द्वित्व विधान किया है उन (उभे) दोनों की (अभ्यस्तम्) अभ्यस्त संज्ञा होती है।
उदा०-ददति। वे दान करते हैं। ददत् । वह दान करता हुआ। दधतु। वह धारण करे।
सिद्धि-ददति । दा+लट् । दा+झि । दा+शप्+झि । दा-दा+o+झि । द+दा+० अत् ।। द-द्+अति। ददति।
यहां दुदाञ् दाने (जु०उ०) धातु से लट् प्रत्यय और उसके लकार के स्थान में तिप्तस्झि०' (३।४।७४) से झि-आदेश, कर्तरि शप्' (३।१।६८) से शप् विकरण प्रत्यय और उसे जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२।४/७५) से इलु होकर 'श्लौ' (६।१।१०) से 'दा' धातु के प्रथम एकाच अवयव को द्वित्व होकर उसके द्विरुक्त दा-दा' दोनों की इस