Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 22
________________ ११ " करेणाधारे चानट्" इति करणेप्यनप्रत्ययानुशासनात् । भावसाधनं तु ज्ञानपदं प्रमितिमाह । अन्यद्धि भावसाधनात्करणसाधनं पदम् । एवमेव प्रमाणपदमपि प्रमीयतेऽनेनेति करणसाधनं कर्तव्यम्, अन्यथा सम्यग्ज्ञानपदेन सामानाधिकरण्याऽघटनात् । तेन प्रमितिक्रियां प्रति यत्करणं तत्प्रमाणमिति सिद्धम् । तदुक्तं प्रमाणनिर्णये “ इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम् " इति । ( शङ्का ) प्रमितिका कर्ता जो प्रमाता है, वह ज्ञाता है किंतु स्वयं ज्ञान नहीं है । इसलिये यद्यपि प्रमाताकी ज्ञानशब्दसे व्यावृत्ति होती है, तथापि प्रमितिकी व्यावृत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि प्रमिति भी यथार्थ ज्ञानस्वरूप ही है । ( उत्तर ) ऐसा तब हो सकता था जब कि यहांपर ज्ञानशब्द भावसाधन होता । किन्तु यहांपर इस ज्ञानशब्दको माना है करणसाधन । उसकी व्याकरणके अनुसार 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्' ऐसी निरुक्ति भी होती है तथा "करणाधारे चानट्” इस व्याकरणसूत्रसे करण अर्थमें अनट् प्रत्यय होता है । जो ज्ञानशब्द भावसाधन है वह प्रमितिका ही वाचक है । किंतु भावसाधन ज्ञानशब्दसे करणसाधन ज्ञानशब्द एक भिन्न ही शब्द है । इसी प्रकार प्रमाण शब्दको भी 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' ऐसी निरुक्ति के अनुसार यहांपर करण साधन ही समझना चाहिये । क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा, तो प्रमाणशब्दका सम्यज्ञानशब्द के साथ एकाधिकरणता नहीं बन सकेगा । इससे यह बात सिद्ध हुई कि प्रमितिक्रिया के ( जाननेरूप क्रिया ) प्रति जो करण है, वह प्रमाण है । प्रमाणनिर्णय में भी ऐसा ही १ यह जैनेन्द्र महाव्याकरणका सूत्र है ।

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