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स्वार्थानुमानके पक्ष और हेतु इस प्रकार दो अङ्ग भी माने जाते हैं क्योंकि पक्ष कहनेसे साध्यरूप धर्मसे युक्त धर्मीका ही बोध होता है। इससे यह फलितार्थ सिद्ध हुआ कि स्वार्थानुमानके धर्मी, साध्य, साधनके भेदसे तीन अङ्ग होते हैं और पक्ष, साधनके कहनेसे दो अङ्ग होते हैं । इसमें केवल विवक्षाकी विचित्रता है । अर्थात् जब तीन अङ्गविवक्षित हैं तब धर्मी और धर्ममें भेद विवक्षित है और जब दो अङ्ग इष्ट हों तब दोनों (धर्मी और धर्म )के समुदायकी विवक्षा समझनी चाहिये । उक्त तीनों अङ्गोंमें जो धर्मी है वह प्रसिद्ध ही होता है । सोई माणिक्यनन्दि भट्टारकने ऐसा कहा है कि "धर्मी प्रसिद्ध (ही) होता है।
प्रसिद्धत्वं च धर्मिणः कचित्प्रमाणात्कचिद्विकल्पात्कचिप्रमाणविकल्पाभ्याम् । तत्र प्रत्यक्षाद्यन्यतमावधृतत्वं प्रमाणप्रसिद्धत्वम् । अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकल्पप्रसिद्धत्वम् । तवयविषयत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् ।।
धर्मीकी प्रसिद्धि कहीं तो प्रमाणसे, कहीं विकल्पसे, और कहीं प्रमाण विकल्प दोनोंसे होती है। प्रत्यक्षादिमेसे किसी भी एक प्रमाणद्वारा जिसका निश्चय हो उसको प्रमाणप्रसिद्ध धर्मी कहते हैं । “यह प्रमाणका विषय है" अथवा "यह अप्रमाणका विषय है" इस प्रकार दोनोंमेंसे जिसका कुछ भी निश्चय प्रमाणद्वारा तो न हो किंतु साध्यसिद्धिमात्र करनेके लिये जो कल्पित करलिया हो उसको विकल्पप्रसिद्ध धर्मी कहते हैं । जो दोनोंका विषय हो उसको प्रमाणविकल्पप्रसिद्ध धर्मी कहते हैं । अर्थात् जिसका कुछ अंश किसी प्रमाणसे सिद्ध हो और कुछ अंश अनिश्चित हो उसको प्रमाणविकल्पप्रसिद्ध धर्मी कहते हैं ।
तत्र प्रमाणसिद्धो धर्मी यथा धूमवत्त्वादग्निमचे साध्ये पर्वतः खलु प्रत्यक्षेणानुभूयते । विकल्पसिद्धो यथा, सर्वज्ञः