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लक्षणसे युक्त सम्यग्दर्शनादिक तीनोंका समुदाय ही मोक्षका मार्ग है, प्रत्येक नहीं । यह तात्पर्य, मार्गशब्दके आगे जो एक वचनका प्रयोग किया है उससे सिद्ध होता है । इसीको वाक्यार्थ कहते हैं । इस आगम प्रमाणमें इसी आगम-प्रमाण द्वारा साध्य किये हुए विषयमें संभव होनेवाले संशयादिकी निवृत्ति होना वह प्रमिति समझनी चाहिये। __ कः पुनरयमाप्त इति चेदुच्यते । आप्तः प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थत्वे सति परमहितोपदेशकः । प्रमितेत्यादावेवोच्यमाने श्रुतकेवलिष्वतिव्याप्तिः, तेषामागमप्रमितसकलार्थत्वात् । अत उक्तं प्रत्यक्षेति । प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थ इत्येतावदुच्यमाने सिद्धेष्वतिव्याप्तिः, अत उक्तं परमेत्यादि । परमं हितं निःश्रेयसम् । तदुपदेश एव अर्हतः प्रामुख्येन प्रवृत्तिः । अन्यत्र तु प्रश्नानुरोधादुपसर्जनत्वेनेति भावः । नैवंविधः सिद्धपरमेष्ठी, तस्यानुपदेशकत्वात् । ततोऽनेन विशेषणेन तत्र नातिव्याप्तिः । आप्तसद्भावे प्रमाणमुपन्यस्तम् । नैयायिकाद्यभिमतानामाप्ताभासानामसर्वज्ञत्वात्प्रत्यक्षप्रमितेत्यादिविशेषणेनैव निरासः।
आप्त किसको कहते हैं ? जो प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदा. थोंको यथार्थ जानकर उत्कृष्ट हितका उपदेश देनेवाला हो उसको आप्त कहते हैं । यदि यथार्थ जानकर हितकारी उपदेश कहनेवालेको ही आप्त कहा जाय, तो श्रुतकेवलीमें अतिव्याप्ति आती है, क्योंकि उन्होंने आगमके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको यथार्थरूपसे जाना है । इसलिये 'प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा' इतना और भी कहा । यदि 'प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोके यथार्थ साता' इतना ही आप्तका लक्षण किया जाय तोसिद्धोंमें अतिव्याप्ति-दोष आता है। क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञानसे सम्पूर्ण पदार्थोंको वे भी यथार्थ जानते हैं। इसलिये "उत्कृष्ट हितका उपदेश देनेवाला" इतना और अधिक