Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 135
________________ १२४ सङ्केतका ग्रहण हो चुका है, वह शब्द उसी पदार्थका व्यवहार कराता है। इस आगममें उक्त दोनोंका जुदा जुदा निरूपण किया है। उक्त गुण और पर्याय दोनोंका ही आश्रय द्रव्य है; क्योंकि आचार्योंने ऐसा कहा है कि 'जिसमें गुण और पर्याय पाये जायं वह द्रव्य है।' इसी द्रव्यका दूसरा स्वरूप सत्व भी कहा है; क्योंकि सिद्धांतमें ऐसा कहा है कि भाव और भाववान् इन दोनोंमें अभेद विवक्षा रखनेसे सत्त्वरूप ही द्रव्य है। तदपि जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चेति सङ्कपतो द्विविधम् । द्वयमप्येतदुत्पत्तिविनाशस्थितियोगि "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" इति निरूपणात् । तथा हि, जीवद्रव्यस्य स्वर्गप्रापकपुण्योदये सति मनुष्यस्वभावस्य व्ययः, देव स्वभावस्योत्पादः, चैतन्यस्वभावस्य ध्रौव्यमिति, जीवद्रव्यस्य सर्वथैकान्तरूपत्वे पुण्योदयवैफल्यग्रसङ्गात् । सर्वथा भेदे पुण्यवानन्यः फलवानन्य इति पुण्यसम्पादनवैयर्थ्यप्रसङ्गात् परोपकारस्याप्यात्मसुकृतार्थमेव प्रवर्त्तमानत्वात् । तस्माजीवद्रव्यरूपेणाभेदः। मनुष्यपर्यायदेवपर्यायरूपेण भेद इति प्रतिनियतनयनिरस्तविरोधौ भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव । उस द्रव्यके भी जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य इस प्रकार सङ्क्षपसे दो भेद हैं । इन दोनोंमें ही उत्पत्ति विनाश स्थिति ये तीनों स्वभाव पाये जानेसे इनमें द्रव्यका लक्षण संभव होता है। आगममें ऐसा ही कहा है कि 'सत्, सदा उत्पाद व्यय और ध्रौव्यसे युक्त रहता है ।' जैसे कि स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मका उदय होनेपर जीवद्रव्यमें मनुष्यस्वभावका व्यय, और देवस्वभावका उत्पाद तथा चैतन्यस्वभावका ध्रौव्य भी है। जीवद्रव्यको यदि सर्वथा एकस्वरूप माना जाय तो पुण्योदयसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो, क्योंकि, जो वस्तु सर्वथा

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146