Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 132
________________ १२१ उसका यहां वर्णन नहीं करते । वाक्यका स्वरूप भी ग्रन्थान्तरोंसे सिद्ध है, इसलिये उसका भी स्वरूप यहां नहीं दिखाते । अथ कोयमर्थो नाम ? उच्यते । अर्थोऽनेकान्तः । अर्थ इति लक्ष्यनिर्देशः, अभिधेय इति यावत् । अनेकान्त इति लक्षणकथनम् । अनेके अन्ता धर्माः सामान्यविशेषपर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः । तत्र सामान्यमनुवृत्त स्वरूपम्, तद्धि घटत्वं पृथुबुधोदराकारः, गोत्वमिति सास्त्रादिमत्वमेव । तस्मान्न व्यक्तितोत्यन्तमन्यन्नित्यमेकमनेकवृत्ति | अर्थ (विषय) किसको कहते हैं ? जो अनेकान्तस्वरूप हो उसको अर्थ कहते हैं । यहांपर अर्थ जिसको अभिधेय भी कहते हैं, लक्ष्य है, और अनेकान्तत्व उसका लक्षण है । जिसमें अनेक अन्त, अर्थात् सामान्य विशेष पर्याय और गुणरूप धर्म पाये जायें उसको अनेकान्त कहते हैं । अनेक पदार्थोंके सदृश स्वरूपको सामान्य कहते हैं । जैसे घटत्व । घटके उदर स्थानपर फूला हुआ आकार वगैरह जो होता है वही घटत्वसामान्य समझना चाहिये । इसी प्रकार अनेक गौओंके गलेमें लटकते हुए चमड़ाको सास्ना कहते हैं, उस सास्नाआदिके होने को ही गोत्वसामान्य कहते हैं । इसलिये सामान्यका स्वरूप जो नैयायिक यह कहते हैं, 'कि वह सामान्य व्यक्तिसे सर्वथा भिन्न, नित्य, एक और अनेकों में रहनेवाला है ।' सो ठीक नहीं है । अन्यथा " न याति न च तत्रास्ते न पश्चादस्ति नाशवत् । जहाति पूर्वं नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ १ ॥” इति दिङ्नागदूषण दूषित गणप्रसरप्रसङ्गात् । पृथुबुनोदराकारादिदर्शनानन्तरमेव घटोऽयं गौरयमित्याद्यनुवृत्तप्रत्ययसम्भवात् । विशेषोऽपि स्थूलोयं घटः सूक्ष्म इत्यादिव्यावृत्तप्रत्ययावलम्बनं

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