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गर्भस्थ पुत्रमें तथा सपक्ष दूसरे पुत्रोंमें रहता है । परन्तु जो श्याम नहीं हैं उन पुत्रों में भी यह हेतु रहता है या नहीं इस शङ्काका निवारण नहीं होता । अर्थात् जिस प्रकार यह निश्चय है कि यह हेतु पक्ष और सपक्षमें रहता है, उस प्रकार यह निश्चय नहीं है कि यह हेतु विपक्षमें नहीं ही रहता है । इसलिये यह हेतु शङ्कितविपक्षवृत्ति है । इस दूसरे भेदका दूसरा उदाहरण यह भी है कि अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं हैं; क्योंकि वे वक्ता हैं । जो वक्ता होता है वह सर्वज्ञ नहीं होता । जैसे, मार्गमे चलनेवाला साधारण मनुष्य । यहांपर वक्तृत्व हेतु अर्हन्तरूप पक्षमें तथा मार्गमें चलनेवाले सपक्षरूप पुरुषमें रहता है । उसी प्रकार सर्वज्ञरूप विपक्षमें भी उसके रहनेकी सम्भावना है, क्योंकि वक्तृत्व और ज्ञातृत्वमें कोई विरोध नहीं है। जिसका जिसके साथ विरोध होता है वह वहांपर नहीं रहता । वचन और ज्ञानमें कोई भी विरोध लोकमें दीखता नहीं है, प्रत्युत जो अधिक ज्ञानवान् है उसके वचन स्पष्ट सुन्दर देखनेमें आते हैं । इसलिये अनन्त ज्ञानके धारक सर्वज्ञमें यदि वचनका भी उत्कर्ष रहै तो कोई भी बाधा नहीं है । इसलिये यह वक्तृत्व हेतु शङ्कितविपक्षवृत्ति है। - अप्रयोजको हेतुरकिश्चित्करः। स द्विविधः, सिद्धसाधनो बाधितविषयश्च । तत्राद्यो यथा, शब्दः श्रावणो भवितुमर्हति शब्दत्वादिति । अत्र श्रावणत्वस्य साध्यस्य शब्दनिष्ठत्वेन सिद्धत्वाद्धेतुरकिश्चित्करः । बाधितविषयस्त्वनेकधा । कश्चिप्रत्यक्षबाधितविषयः । यथा, अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादित्यत्र द्रव्यत्वहेतुः । तस्य विषयत्वेनाभिमतमनुष्णत्वमुष्णत्वग्राहकेण स्पार्शनप्रत्यक्षेण बाधितम् । ततः किश्चिदपि कर्तुमशक्यत्वादकिश्चित्करो. द्रव्यत्वहेतुः । कश्चित्पुनरनुमानबा.