Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 119
________________ धितविषयः। यथा, अपरिणामी शब्दोऽकृतकत्वादिति । अत्र परिणामी शब्दः प्रमेयत्वादित्यनुमानेन बाधितविषयत्वम् । जिस हेतुसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हो उसको अकिञ्चित्कर कहते हैं। उसके दो भेद हैं, एक सिद्धसाधन दूसरा बाधितविषय। जिसका साध्य दूसरे प्रमाणसे सिद्ध हो गया हो, उसको सिद्धसाधन कहते हैं । जैसे, शब्द श्रोत्रेन्द्रियका विषय है; क्योंकि वह शब्द है । यहांपर श्रोत्रेन्द्रियका विषय होनेरूप जो साध्य उसका शब्दमें रहना स्वयंसिद्ध है। इसीलिये उसके सिद्ध करनेके लिये बोलाहुआ शब्दत्व हेतु अकिञ्चित्कर है । जिसका विषय किसी प्रमाणसे बाधित हो उसको बाधितविषय कहते हैं । उसके अनेक भेद हैं। कोई प्रत्यक्षबाधितविषय होता है । जैसे, अग्नि उष्ण नहीं है, क्योंकि वह द्रव्य है । यहांपर द्रव्यत्वहेतुका विषय उष्णताका न होना, उष्णताको विषय करनेवाले स्पर्शन प्रत्यक्षसे बाधित होता है । इस लिये यह द्रव्यत्वहेतु प्रत्यक्षबाधितविषय है और कुछ भी नहीं कर सकता, इसलिये अकिश्चित्कर है। कोई अनुमानसे बाधितविषय होता है । जैसे शब्द अपरिणामी है; क्योंकि वह अकृत्रिम है । यहांपर अकृत्रिमत्व हेतुका विषय इस अनुमानसे बाधित होता है, कि शब्द परिणामी हैक्योंकि वह प्रमेय है । इसलिये यह कृत्रिमत्वहेतु अनुमानसे बाधितविषय है, और कुछ भी न कर सकनेके कारण अकिञ्चित्कर है। • कश्चिदागमबाधितविषयः । यथा, प्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवदिति । अत्र धर्मः सुखप्रद इत्यागमः । तेन बाधितविषयत्वं हेतोः । कश्चित्स्ववचनबाधितविषयः । यथा, मे माता वन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात प्रसिद्धवन्ध्या

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