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१०५ कहते हैं, और जिसके स्वरूपमें सन्देह हो उसको सन्दिग्धासिद्ध कहते हैं । जैसे शब्द परिणामी है क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रियका विषय है। यहांपर शब्दको श्रोत्रेन्द्रियका विषय होनेसे उसमें चाक्षुषत्वके अभावका निश्चय है । अत एव यह चाक्षुषत्व हेतु असिद्ध हेत्वाभासका पहला भेद स्वरूपासिद्ध है । दूसरा भेद सन्दिग्धासिद्ध है, जैसे धूम और वाष्पके भेदका निश्चय न होनेपर कोई कहता है कि यहांपर अग्नि है; क्योंकि यहांपर धूम है। इस अनुमानमें धूम हेतु सन्दिग्धासिद्ध है; क्योंकि उसके खरूपमें यह सन्देह है कि यह धूम है अथवा वाष्प ।।
साध्यविपरीतव्याप्तो विरुद्धः । यथाऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात्। कृतकत्वं ह्यपरिणामित्वविरोधिना परिणामित्वेन व्यासम् । पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः । स द्विविधो, निश्चितविपक्षवृत्तिकः शङ्कितविपक्षवृत्तिकश्चेति । तत्राद्यो यथा, धूमवानयं प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्राग्निमत्त्वं हेतुः पक्षीकृते सन्दिह्यमानधूमे पुरोवर्तिनि प्रदेशे वर्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च वर्तते । विपक्षे धृमरहितत्वेन निश्चितेऽङ्गारावस्थापनाग्निमति प्रदेशे वर्तते । इति निश्चयानिश्चितविपक्षवृत्तिकः।
जिस हतुकी साध्यसे विपरीतके साथ व्याप्ति हो उसको विरुद्ध कहते हैं। जैसे शब्द अपरिणामी है; क्योंकि वह कृत्रिम है। यहांपर कृत्रिमत्व हेतुकी साध्यभूत अपरिणामित्वके साथ व्याप्ति नहीं है किन्तु उसके विरोधी परिणामित्वके साथ उसकी व्याप्ति है। इसलिये यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है।
जो हेतु पक्ष सपक्ष विपक्ष तीनोंमें रहै उसे अनैकांतिक हेत्वाभास कहते हैं। उसके दो भेद हैं-एक निश्चितविपक्षवृत्ति अर्थात् विपक्षमें जिसका रहना निश्चित हो, दूसरा शङ्कितविफ