Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 91
________________ ८० लिये, जब तक एकका जय और दूसरेका पराजय न हो, तब तक प्रवर्तनेवाले वचनव्यवहारको विजिगीषुकथा कहते हैं । जब तक तत्त्वनिर्णय न होजाय तब तक गुरुशिष्य में अथवा रागद्वेषरहित विशेष विद्वानों में परस्पर होनेवाले वचनव्यवहारको वीतरागकथा कहते हैं । विजिगीषुकथाको वाद भी कहते हैं । कोई वीतरागकथाको ही वाद कहते हैं, परन्तु यह केवल उनके घरका संकेत है; क्योंकि गुरु और शिष्य के वचनव्यवहारको लोक में कोई भी वाद नहीं कहता। जो विजिगीषुकथा है उसीमें वादशब्द की प्रसिद्धि है। जैसे कि "स्वामी श्रीसमन्तभद्राचार्यने वाद में सम्पूर्ण सर्वथा एकान्तवादियोंको जीता " । तस्मिंश्च वादे परार्थानुमानवाक्यस्य प्रतिज्ञा हेतुरित्यवयवद्वयमेवोपकारकं, नोदाहरणादिकम् । तद्यथा, लिङ्गवचनात्मकेन हेतुना तावदवश्यं भवितव्यम् । लिङ्गज्ञानाभावेऽनुमितेरेवानुदयात् | पक्षवचनरूपया प्रतिज्ञयापि च भवितव्यं, अन्यथाऽभिमतसाध्यनिश्चयाभावे साध्यसन्देहवतः श्रोतुरनुमित्यनुदयात् । तदुक्तं "एतद् द्वयमेवानुमानाङ्गम्" इति । अयमर्थः, एतयोः प्रतिज्ञाहेत्वोर्द्वयमेवानुमानस्य परार्थानुमानस्याङ्गम् । वादे इति शेषः । एवकारेणावधारणपरेण नोदाहरणादिकमिति सूचितं भवति । व्युत्पन्नस्यैव हि वादा - धिकारः । प्रतिज्ञाहेतुप्रयोग मात्रेणैवोदाहरणादिप्रतिपाद्यस्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात् । गम्यमानस्याप्यभिधाने पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् । उक्त वादमें परार्थानुमानके लिये बोलेहुए वाक्यके प्रतिज्ञा और हेतु ऐसे दो अवयव ही प्रयोजीनभूत हैं, उदाहरणादिक नहीं; क्योंकि, लिङ्गकथनरूप हेतुका प्रयोग तो करना ही चाहिये; क्योंकि

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