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यथा मातुलिङ्गं रूपवद्भवितुमर्हति रसवत्वान्यथानुपपत्तेरि.त्यत्र रसः । रसो नियमेन रूपसहचरितस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तं गमयति ।
कोई पूर्वचर होता है, जैसे आगे रोहिणीका उदय होगा; क्योंकि नहीं तो वर्तमानमें कृत्तिकाका उदय नहीं हो सकता, यहांपर कृत्तिकाका उदय । कृत्तिकोदयसे एक मुहूर्तके अनन्तर रोहिणीका उदय नियमसे होता है इसलिये पूर्वमें भी रहनेवाले कृत्तिकोदयरूप हेतुसे रोहिणीके उदयरूप साध्यका शान होता है।
कोई हेतु उत्तरचर होता है, जैसे भरणीका उदय हो चुका; क्योंकि वर्तमानमें कृत्तिकाका उदय है, यहांपर कृत्तिकाका उदय । भरणीके उदयसे पीछे होनेवाला यह कृत्तिकाका उदय अपनेसे पूर्वमें होनेवाले भरणीके उदयका शापक है।
कोई हेतु सहचर होता है, जैसे बैंगनमें रूप अवश्य है, क्योंकि नहीं तो रस नहीं रह सकता, यहांपर रस । यह रस नियमसे रूपके साथ ही रहता है, उसके अभावमें नहीं । अत एव वह (रस) रूपका ज्ञापक है। __ एतेषूदाहरणेषु भावरूपानेवाग्यादीन्साधयन्तो धृमादयो हेतवो भावरूपा एवेति विधिसाधकविधिरूपाः। एत एवाविरुद्धोपलब्धय इत्युच्यन्ते । एवं विधिरूपस्य हेतोविधिसाधकाख्य आयो भेद उदाहृतः। ___ उक्त सम्पूर्ण उदाहरणोंमें धूमादिक हेतु वयंभावरूप हैं और भावरूप ही अग्नि आदिकी सिद्धि करते हैं । अत एव इनको विधिसाधक विधिरूप तथा अविरुद्धोपलब्धि भी कहते हैं । इस प्रकार विधिरूप हेतुके विधिसाधक नामा प्रथम भेदका निरूपण उदाहरणसहित हो चुका ।