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सोयमन्यथानुपपत्तिनिश्चयैकलक्षणो हेतुः संक्षेपतो द्विविधः । विधिरूपः प्रतिषेधरूपश्वेति । विधिरूपोऽपि द्विविधो विधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्चेति । तत्राद्योऽनेकधा । तद्यथा कश्चित्कार्यरूपो, यथा पर्वतोऽयमग्निमान्धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र धूमः । धूमो ह्यः कार्यभूतस्तदभावेऽनुपपद्यमानोनिं गमयति । कश्चित् कारणरूपः यथा दृष्टिर्भविष्यति विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेरिति । अत्र मेघविशेषो हि वर्षस्य कारणं स्वकार्य - भूतं वर्ष गमयति ।
अन्यथानुपपत्तिपूर्वक निश्चय होना ही जिसका मुख्य लक्षण है उस हेतुके संक्षेपसे दो भेद हैं। एक विधिरूप दूसरा प्रतिषेधरूप । विधिरूपके भी दो भेद हैं- एक विधिसाधक दूसरा प्रतिषेधसाधक । विधिसाधकके भी अनेक भेद हैं । उनमें से कोई कार्यरूप है, जैसे पर्वत अग्निमान् है; क्योंकि नहीं तो धूम नहीं हो सकता था । यहांपर धूम अग्निका कार्यभूत है; क्योंकि वह अग्नि न रहते हुए नहीं होता । अत एव वह अग्निका ज्ञापक होता है । कोई कारणरूप होता है, जैसे यहांपर वृष्टि होगी; क्योंकि जहां वर्षा होनेवाली न हो वहां ऐसे अवश्य वर्षा होनेके सूचक मेघ नहीं होते । यहांपर वर्षाका कारणभूत मेघविशेष अपने कार्यरूप वर्षाका ज्ञापक होता है।
ननु कार्य कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुयपत्तेः । कारणं तु कार्याभावेऽपि सम्भवति, यथा धूमाभावेऽपि सम्भवन् वह्निः सुप्रतीतः । अत एव न वह्निर्धूमं गमयति इति चेत् तन्न, उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्य कार्याव्यभिचारित्वेन कार्य प्रति हेतुत्वाविरोधात् । कश्चिद्विशेषरूपो, यथा वृक्षोयं शिंशपात्वान्यथानुपपत्तेरिति । अत्र शिंशपाहि