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पक्षवृत्तिर्विपक्षव्यावृत्तः सपक्षरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी । यथा जीवच्छरीरं सात्मकं भवितुमर्हति प्राणादिम-. त्वात् । यद्यत्सात्मकं न भवति तत्तत्प्राणादिमन्न भवति, यथा लोष्ठमिति । अत्र जीवच्छरीरं पक्षः, सात्मकत्वं साध्यं, प्राणादिमत्वं हेतुः, लोष्ठादिय॑तिरेकिदृष्टान्तः। प्राणादिमत्त्वं हेतुः पक्षीकृते जीवच्छरीरे वर्तते । विपक्षाच्च लोष्ठादेावर्तते। सपक्षः पुनरत्र नास्त्येव । सर्वस्यापि पक्षविपक्षान्तर्भावादिति । शेषं पूर्ववत् ।
जो पक्षमें रहै और विपक्षसे व्यावृत्त हो किंतु जिसका सपक्ष न हो उस हेतुको केवलव्यतिरेकी कहते हैं। जैसे कि जीवितका शरीर सात्मक है; क्योंकि उसमें श्वासोच्छ्रास हैं। जो सात्मक नहीं होता वह श्वासादियुक्त भी नहीं होता, जैसे कि मिट्टीका ढेला । यहांपर जीवितका शरीर पक्ष है, सात्मकत्व साध्य है, श्वासोच्छ्वासादिका होना या प्राणादिमत्त्व हेतु है, मिट्टीका ढेला व्यतिरेकी दृष्टान्त है । यह प्राणादिमत्त्व हेतु जीवित शरीररूप पक्षमें रहता है, तथा मिट्टीके ढेलेरूप विपक्षसे व्यावृत्त है । सपक्ष इसका कोई है ही नहीं, क्योंकि सब चीज़ोंका पक्ष विपक्षमें ही अन्तर्भाव हो चुकता है। शेष सम्पूर्ण अन्वयव्यतिरेकीके समान समझना।।
एवमेतेषां त्रयाणां हेतूनां मध्येऽन्वयव्यतिरेकिण एव पा. श्वरूप्यं, केवलान्वयिनो विपक्षव्यावृत्त्यभावात्, केवलव्यतिरेकिणः सपक्षसत्त्वाभावाच्च नैयायिकमतानुसारेणैव पाश्चरूप्यव्यभिचारः । अन्यथानुपपत्तेस्तु सर्वहेतुव्याप्तत्वाद्धेतुलक्षणत्वमुचितम् । तदभावे हेतोः स्वसाध्यगमकत्वाघटनात् । इस प्रकार उक्त तीनों ही हेतुओंमेंसे केवल अन्वयव्यतिरेकी.