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वादमें लिङ्गके कथनरूप केवल हेतुका ही प्रयोग करना चा. हिये । (समाधान)-इस प्रकार कहनेवाला बौद्ध-पशु अपनी मूर्खता प्रगट करता है, क्योंकि केवल हेतुका प्रयोग करनेसे व्युत्पन्नको भी साध्यमें सन्देह बना रह सकता है । इस लिये प्रतिज्ञाका प्रयोग करना ही चाहिये । ऐसा कहा भी है कि “य. द्यपि पक्ष जाना हुआ हो तथापि साध्यविषयक सन्देह दूर कर. नेके लिये उसका प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि वादकी अपेक्षा परार्थानुमानके प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव हैं, न कम, न अधिक। यदि यह अवयवोंका विचार विस्तारपूर्वक देखना हो तो पत्रपरीक्षामें देखना चाहिये।
वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पश्चेति यथायोग्यं प्रयोगपरिपाटी । तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः "प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः" इति । तदेवं प्रतिज्ञादिरूपात्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् । तदुक्तं “परोपदेशसापेक्षं साधनात्साध्यवेदनम् । श्रोतुर्यजायते सा हि परार्थानुमितिर्मता ॥१॥" इति । तथाच स्वार्थ परार्थ चेति द्विविधमनुमानं साध्याविनाभावनिश्चयैकलक्षणाद्धेतोरुत्पद्यते ।
किन्तु वीतरागकथामें शिष्यके आशयानुसार यथायोग्य प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंका, प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण इन तीन अवयवोंका, प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय इन चार अवयवोंका अथवा प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय निगमन इन पांच अवयवोंका भी प्रयोग होता है । यही कुमारनन्दीभट्टारकने कहा है कि "अवयव बोलनेकी शैली तो