Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Bansidhar Shastri
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 96
________________ ८५ दयरूप साध्यका निश्चय कराता ही है । इसलिये बौद्धके मानेहुए हेतुके लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है । नैयायिकास्तु पाञ्चरूप्यं हेतोर्लक्षणमाचक्षते । तथा हि, पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाद्व्यावृत्तिरबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चेति पञ्चरूपाणि । तत्राद्यानि त्रीण्युक्तलक्षणानि । साध्यविपरीतनिश्चायकमबलप्रमाणरहितत्वमबाधितविषयत्वम् । तादृशसमबलप्रमाणशून्यत्वमसत्प्रतिपक्षत्वम् । तद्यथा, पर्वतो - यमग्निमान् धूमवत्त्वात् । यो यो धूमवान् स सोऽग्निमान्, यथा महानसः । यो योऽग्निमान् न भवति स स धूमवान् न भवति, यथा महाहूदः । तथा चायं धूमवांस्तस्मादग्निमानेवेति । । नैयायिक पञ्चरूप होनेको हेतुका लक्षण कहते हैं । अर्थात् पक्षधर्मत्व, सपक्षेसत्व, विपक्षाद्व्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व, इस प्रकार हेतुके पांच रूप हैं। इनमें से पहले तीनोंका लक्षण तो पहले कहा जा चुका है । दोका यह सुनिये :- साध्यसे विपरीतताका निश्चय करानेवाला प्रबल प्रमाण जिसमें संभव न हो उसको अबाधितविषयत्व कहते हैं । समानबल के धारक ऐसे साध्यविपरीतनिश्चायक किसी विरुद्ध प्रमाणका जो संभव न होना उसे असत्प्रतिपक्षत्व कहते हैं । अर्थात् यह पर्वत अग्निमान् है, क्योंकि यहांपर धूम है। जहां जहां धूम होता है, वहां वहां अग्नि जरूर होती है, जैसे कि रसोइघरमें । जहां जहां अग्नि नहीं होती, वहां वहां धूम भी नहीं होता, जैसे कि महाहदमें। धूमवान् यह भी है इसलिये अग्निमान् भी यह होना चाहिये । अत्र हि अग्निमत्त्वेन साध्यधर्मेण विशिष्टः पर्वताख्यो धर्मी पक्षः । धूमवत्त्वं हेतुः । तस्य च तावत्पक्षधर्मत्वमस्ति, पक्षीकृतेपर्वते वर्तमानत्वात् । सपक्षे सच्चमप्यस्ति, सपक्षे महानसे वर्त

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