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शब्द परिणामी है, क्योंकि वह कृत्रिम है । यहांपर शब्द, उभयसिद्ध धर्मी है; क्योंकि वर्तमान शब्द प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध है और भूत तथा भविष्यत् शब्द विकल्पसिद्ध हैं, क्योंकि परिणामित्वरूप साध्यकी सिद्धिसे पहले भूत भविष्यत् शब्दका खरूप प्रत्यक्षादि प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, किंतु कल्पनामात्रसे आरोपित कर लिया जाता है, परंतु वह संपूर्ण ही, शब्द अर्थात्भूत, भविष्यत्, वर्तमान, तीनों ही अवस्थाका शब्द धर्मी माना गया है, इसलिये शब्दरूप धर्मी प्रमाणविकल्प सिद्ध है। अर्थात् शब्दका एकदेश प्रत्यक्षादि प्रमाणसे सिद्ध है और एकदेश नहीं इसलिये शब्दरूप धर्मी प्रमाणविकल्पसिद्ध है। प्रमाणसिद्ध अथवा उभयसिद्ध धर्मीमें इच्छानुसार चाहे जो कुछ साध्य हो सकता है। अर्थात् इन दो प्रकारके धर्मियोंमें चाहे जो सिद्ध कर सकते हैं । परन्तु विकल्पसिद्ध धर्मीमें यह नियम है कि उसकी सत्ता या असत्ता ही साध्य हो सकती है। इसीलिये माणिक्यनन्दी स्वामीने ऐसा कहा है कि "विकल्पसिद्ध धर्मी में सत्ता या असत्ता ही साध्य होती है" । इससे यह सिद्ध हुआ कि “दूसरेकी अपेक्षा न रखनेवाले पुरुषको खयं दीखनेवाले साधनद्वारा किसी धर्मी में जो साध्यका ज्ञान होता है उसको स्वार्थानुमान कहते हैं" । ऐसा कहा भी है कि “परोपदेश विना ही द्रष्टाको [अनुमान करनेवालेको साधनसे साध्यका जो ज्ञान हो वह स्वार्थानुमान है।"
परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् । प्रतिज्ञाहेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः। यथा पर्वतोयमग्निमान् भवितुमर्हति धृमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्पयुक्ते तद्वाक्यार्थ प्रोलोचयतः स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते । दूसरेका उपदेश सुननेसे जो साधनसे साध्यका ज्ञान हो,